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Showing posts with the label भगवान गणेश

भगवान वक्रतुंड के अवतार की कथा

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देवराज इंद्र के प्रमाद से मत्सर नामक असुर का जन्म हुआ ।उसने दैत्य गुरु शुक्राचार्य से शिव पंचाक्षरी मंत्र (ओम नमः शिवाय) की दीक्षा ली । और भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए घोर तप किया ।आशुतोष शंकर ने उसे भगवती पार्वती सहित प्रकट होकर दर्शन दिए और इच्छित वर मांगने को कहा । असुर ने अपने मनोनुकूल वर प्राप्त कर लिए तथा प्रसन्न कामारि ने उसे एक वर और दे दिया - ''तुम्हें किसी से भय नहीं रहेगा।         इस प्रकार पार्वती वल्लभ से वर प्राप्त कर मत्सर अपने निवास पर आया और शुक्राचार्य ने उसे सभी दैत्यों के राजा के रूप में अभिषिक्त किया।  दैत्यों ने वर प्राप्त अपने अधिपति मत्सर से निवेदन किया कि अब आप  निःसंकोच विश्व विजय करें क्योंकि वर के प्रभाव से आपको कोई भयभीत नहीं कर सकता ।            अपने अनुचरों की इस सलाह को मानकर मत्शरासुर ने विश्व - विजय करने का निश्चय किया और अपनी विशाल सेना लेकर पृथ्वी वासी नरेशों पर आक्रमण कर दिया । पृथ्वी के नरपति उस पराक्रमी दैत्य की सेना के सम्मुख अपने को असहाय जानकर कुछ तो अपने प्राण बचा रणभूमि से भाग निकले ,कुछ ने उससे रण में लोहा लेन

ब्रह्मवैवर्त पुराण भगवान गणेश का प्राकट्य

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 जब शैल- पुत्री पार्वती के साथ बृषभध्वज का पाणिग्रहण हो गया तो चराचर आत्मा शिव उन्हें लेकर वन में चले गए दीर्घ काल तक  देवाधिदेव महादेव का बिहार चलता रहा । एक दिन धर्माज्ञा पार्वती ने भगवान शंकर से निवेदन किया-" प्रभो! मैं एक श्रेष्ठ पुत्र चाहती हूं।        सर्व भूत पति भगवान त्रिपुरारी ने अपने धर्म परायणा पत्नी की बात सुनकर कहा-" प्रिय मैं तुम्हें एक श्रेष्ठ व्रत की विधि बतलाता हूं । इस व्रत का नाम पुण्यक व्रत है । इसका अनुष्ठान एक वर्ष का है। धर्मात्मा मनु की पत्नी भी पुत्र न होने से जब क्लेश युक्त थीं । तो उन्होंने विधाता से पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा था । वह  ब्रह्म लोक में जा विधाता से विनय पूर्वक बोली -"प्रभो !"आप सृष्टिकर्ता और कारणों के भी कारण है । पुत्र के बिना गृहस्थ का क्या अर्थ अर्थात गार्हस्थ - जीवन नीरस और व्यर्थ ही है । पुत्र के बिना स्त्री पुरुष का जन्म अन्य धर्म सब निष्फल है । तप और दान का फल जन्म और जन्मांतर में सुख का हेतु होता है, परंतु पुत्र पुञ् नामक नरक से रक्षा करता है । इसलिए बंध्या को पुत्र किस उपाय से हो सकता है , आप कृपा पूर

शिव पुराण में विनायक के प्राकट्य की कथा

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            । शिव पुराण ।       शिव पुराण में विनायक के प्राकट्य की कथा इस प्रकार है भगवती पार्वती अपने प्राण पति भगवान शंकर के साथ कैलाश पर्वत पर आनंद पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी उनके साथ उनकी विजया और जया नाम की जो प्रिय सखी भी नहीं निवास करती थी एक दिन भगवती की दोनों सखियां विचार करके पार्वती जी से कहने लगी -"  हे हिमगिरि नंदिनी पार्वती सभी गण भगवान शिव के ही हैं नंदी भृंगी आदि गण जो हमारी सेवा में है वह भी भगवान शंकर की आज्ञा में ही तत्पर रहते हैं वे मात्र आशुतोष की अन्यता के कारण ही द्वार पालक बने हुए हैं यद्यपि यह भी हमारे ही हैं तथा आप कृपा करके हमारे लिए भी एक गण की रचना कर दीजिए।        एक दिन की बात है कि शिवप्रिया उमा स्नानागार में जल क्रीड़ा कर रही थी ।द्वार पर नंदी खड़ा था । इसी समय लीलाधारी भगवान कामारि अपनी प्रिया के पास आए । द्वार पर खड़े नंदी ने उन्हें सूचना दी कि मां पार्वती स्नान कर रही हैं ,आप भीतर प्रवेश मत करिए । भूत भावन शंकर ने नंदी के इस निवेदन की उपेक्षा करते हुए द्वार के अंदर प्रवेश कर लिया और सीधे स्नानागार मैं भगवती के समीप पहुंचे । परम प

श्री गणेश चालीसा

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 गणेश :  प्रथम पूज्य की इस आराधना का महत्व, पाठ की विधि और नियम जानें-: श्री गणेश की आराधना करने से घर में खुशहाली, व्यापार में बरकत और हर कार्य में सफलता प्राप्त होती है ।             सनातन धर्म में भगवान श्री गणेश प्रथम पूजनीय माने जाते हैं। किसी भी मांगलिक और शुभ कार्य को शुरू करने से पहले विघ्नहर्ता भगवान श्री गणेश की आराधना और उनके प्रतीक चिन्हों की पूजा करने विधान है, जिससे सारे कार्य सूख पूर्वक संपन्न हो जाये और उसमें सफलता मिल सके।          गणेश जी को सबसे पहले पूजने का वरदान भगवान शिव द्वारा प्राप्त है। वहीं श्री गणेश को ग्रहों में बुद्ध का अधिपति माने जाने के साथ ही, सप्ताह में बुधवार के दिन के कारक देव भी माना जाता हैं।           सच्चे मन से श्री गणेश की आराधना करने से घर में खुशहाली, व्यापार में बरकत और  हर कार्य में सफलता प्राप्त होती है। भगवान गणेश मंगलकारी और बुद्धि दाता हैं, जिनकी सवारी मूषक यानि चूहा और प्रिय भोग मोदक (लड्डू) है। भगवान गणेश का हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहा जाता है।              गणेश जी के कई अन्य नाम भी हैं, जैसे शिवपुत्र,

भगवान गणेश की प्राकट्य कथा लिंग पुराण से

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    भगवान गणेश की प्राकट्य कथा लिंग पुराण से          अलग-अलग पुराणों में देखने से भी गणपत के प्राकत्य की कथाओं में समानता नहीं पाई जाती। नीचे हम लिंग पुराण से  गज बदन के प्राकट्य की कथा लिख रहे हैं ताकि विनायक भक्त इन्हें पढ़कर ज्ञान अर्जन कर सकें और अपने उपास्य देव की लीलाओं का परिचय प्राप्त कर सकें ।         ।  लिंग पुराण से। लिंग पुराण के पूर्वार्ध में सर्व पूज्य गणेश जी के प्राकटृय की कथा इस प्रकार है --           एक बार की बात है। देवताओं ने परस्पर विचार किया कि प़ायः सभी असुर सृष्टि स्थित कार्य बृहद ध्वज के एवं प्रमुख की आराधना कर उनसे अनुकूल व प्राप्त कर लेते हैं। जिसके कारण युद्ध में वे हमें पराजित करते रहते हैं इन शक्तिशाली देत्यो के कारण हमें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसलिए क्यों ना हम भी स्वविजय  और दैत्यों के कार्यों में विघ्न उपस्थित करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान आशुतोष से प्रार्थना करें ।। यह विचार कर सुर-समुदाय पार्वती वल्लभ शिव के नजदीक जा उनकी स्तुति करने लगा। भगवान शिव उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवों से बोले हे देव गण अभीष्ट वर मा

पद्मा पुराण सेभगवान गणेश का प्राकट्य कथा ः

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अलग-अलग पुराणों में देखने से भी गणपत के प्राकत्य की कथाओं में समानता नहीं पाई जाती। नीचे हम पद्म पुराण से  गज बदन के प्राकट्य की कथा लिख रहे हैं ताकि विनायक भक्त इन्हें पढ़कर ज्ञान अर्जन कर सकें और अपने उपास्य देव की लीलाओं का परिचय प्राप्त कर सकें ।                          । पद्म पुराण से।           पद्म पुराण के  सृष्टि खंड में श्री गणेश के प्राकत्य की मधुर- मनोहर एवं मंगलमय कथा इस प्रकार वर्णित है कि जब हिमगिरि नंदिनी पार्वती का पाणिग्रहण करने के पश्चात भगवान शंकर रमणीय उद्यानों और एकांत बनो में उनके साथ बिहार करने लगे परमानंद प्रदायिनी भवानी के प्रति शुद्ध आत्मा शिव के ह्रदय में अत्यधिक प्रेम था एक बार की बात है शंकर अर्धांगिनी पार्वती ने सुगंधित तेल और चुर्ण से अपने शरीर में उबटन लगवाया । उस बदन से गिरे उबटन से उन्होंने क़ीड़ा वश  एक पुरुष आकृति का निर्माण किया जिसका मुख्य गज के समान था ।         जल क्रीड़ा करते समय माता पार्वती ने उस गजमुख  को पुण्य सलिला गंगा जी के जल में डाल दिया ।त्रिलोक के तारने वाली मां गंगा जी पार्वती जी को अपनी सहेली मानती थी। उनके पुण्य में जल