भगवान गणेश की प्राकट्य कथा लिंग पुराण से

    भगवान गणेश की प्राकट्य कथा लिंग पुराण से         
अलग-अलग पुराणों में देखने से भी गणपत के प्राकत्य की कथाओं में समानता नहीं पाई जाती। नीचे हम लिंग पुराण से  गज बदन के प्राकट्य की कथा लिख रहे हैं ताकि विनायक भक्त इन्हें पढ़कर ज्ञान अर्जन कर सकें और अपने उपास्य देव की लीलाओं का परिचय प्राप्त कर सकें ।        
।  लिंग पुराण से।
लिंग पुराण के पूर्वार्ध में सर्व पूज्य गणेश जी के प्राकटृय की कथा इस प्रकार है --
          एक बार की बात है। देवताओं ने परस्पर विचार किया कि प़ायः सभी असुर सृष्टि स्थित कार्य बृहद ध्वज के एवं प्रमुख की आराधना कर उनसे अनुकूल व प्राप्त कर लेते हैं। जिसके कारण युद्ध में वे हमें पराजित करते रहते हैं इन शक्तिशाली देत्यो के कारण हमें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसलिए क्यों ना हम भी स्वविजय  और दैत्यों के कार्यों में विघ्न उपस्थित करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान आशुतोष से प्रार्थना करें ।। यह विचार कर सुर-समुदाय पार्वती वल्लभ शिव के नजदीक जा उनकी स्तुति करने लगा। भगवान शिव उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवों से बोले हे देव गण अभीष्ट वर मांगो । 
      देवताओं की ओर से बृहस्पति जी ने निवेदन किया हे- करुणामूर्ति प्रभु देव - शत्रु असुरों की आराधना से प्रसन्न होकर आप उन्हें उनके मनोनुकूल वरदान देते हैं , जिससे वे समर्थ होकर हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी बन जाते हैं । उन सुर द्रोही  दानवो के कार्यों में हम विघ्न उपस्थित कर सकें । कृपा करके हमें ऐसा वर दे  ।
        तथास्तु ! परम संतुष्ट आशुतोष ने वर दे कर सुर- समुदाय को आश्वस्त किया ।
          कुछ समय बीतने पर सर्वलोक महेश्वर शिव की पत्नी पार्वती जी के सम्मुख परम ब्रह्म स्वरूप स्कंदाग्रज श्री गणेश जी का प्राकट्य हुआ ।उस परम तेजस्वी बालक का मुख हाथी का था ।उसके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे हाथ में पाश था । सर्व बिघ्नेस के धरती पर अवतार लेते ही सुर -समूह में प्रसन्नता व्याप्त हो गई । और वह हर शातिर एक में सुमन दृष्टि करते हुए भगवान गजानन के चरणों में बारंबार प्रणाम करने लगे । 
       हिमगिरी नंदिनी पार्वती जी ने अपने प्रिय पुत्र को अत्यंत सुंदर और विचित्र वस्त्र आभूषण पहनाये है । देवाधिदेव महादेव ने अपने प्राण प्रिय पुत्र का जातक कर्म और अन्य संस्कार करवाएं । उन्होंने प्रेम पूर्वक पुत्र को गोद में उठाकर कहा- हे पुत्र गणेश यह तुम्हारा अवतार दैत्यों का नाश करने के लिए हुआ है ब्राह्मण एवं ब्रह्म वादियों  के उपकार के करने के लिए हुआ है । यदि कोई पृथ्वी पर दक्षिणाहीन यज्ञ करें तो तुम स्वर्ग मार्ग में उपस्थित होकर उसके धर्म कार्य में विघ्न उपस्थित करो । अर्थात ऐसे यज्ञ करता को स्वर्ग मत  जाने दो। 
          जो भी इस जगत में अनुचित ढंग से अन्याय पूर्वक अध्ययन अध्यापन व्याख्यान और दूसरे कार्यकर्ता है, उसके प्राणों को तुम सदा ही हरण करते रहो।  हे नर पुंगव प़भो वर्ण धर्म से च्युत स्त्री -पुरुषों तथा स्वधर्म रहित व्यक्तियों के भी प़ाणो का तुम हरण करो । जो स्त्री- पुरुष तुम्हारी समय पर पूजा करते हो, उन्हें अपनी समीपता प्रदान करो । हे गणेश्वर! तुम पूजित होकर सदा ही अपने भक्तों की इस लोक में और परलोक में रक्षा करना । तुम विघ्न गणों के स्वामी होने से सर्वदा ही तीनों लोकों में पूजनीय होगे ।
      जो लोग मेरी भगवान विष्णु की अथवा ब्रह्मा जी की यज्ञों द्वारा अथवा ब्राह्मणों के माध्यम से पूजा करते हैं ,उन सब के द्वारा पहले तुम्हारी पूजा होगी । जो पहले तुम्हारी पूजा किए बिना श्रोत- स्मार्त या लौकिक अलौकिक कल्याण कारक कर्मो का अनुष्ठान करेगा, उसका मंगल भी अमंगल में बदल जाएगा ।
         ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्रो द्वारा भी तुम सभी कार्यों की सिद्धि के लिए प्रथम पूज्य होगे ।
    तीनों लोकों में जो चंदन पुष्प धूप दीप आदि द्वारा तुम्हारी पूजा किए बिना ही कुछ पाने की चेष्टा करेंगे  । वह देवता हो अथवा और कोई उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। जो लोग तुम विनायक की पूजा करेंगे, वह निश्चय ही इंद़ादि  देवताओं द्वारा भी पूजे जाएंगे । जो लोग फल की कामना से ब्रह्मा विष्णु इंद्रादि देवताओं की पूजा तो करेंगे, किन्तु तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, उन्हें तुम विघ्नों द्वारा बाधा पहुंचाओगे ।

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