ब्रह्मवैवर्त पुराण भगवान गणेश का प्राकट्य

 जब शैल- पुत्री पार्वती के साथ बृषभध्वज का पाणिग्रहण हो गया तो चराचर आत्मा शिव उन्हें लेकर वन में चले गए दीर्घ काल तक  देवाधिदेव महादेव का बिहार चलता रहा । एक दिन धर्माज्ञा पार्वती ने भगवान शंकर से निवेदन किया-" प्रभो! मैं एक श्रेष्ठ पुत्र चाहती हूं।
       सर्व भूत पति भगवान त्रिपुरारी ने अपने धर्म परायणा पत्नी की बात सुनकर कहा-" प्रिय मैं तुम्हें एक श्रेष्ठ व्रत की विधि बतलाता हूं । इस व्रत का नाम पुण्यक व्रत है । इसका अनुष्ठान एक वर्ष का है। धर्मात्मा मनु की पत्नी भी पुत्र न होने से जब क्लेश युक्त थीं । तो उन्होंने विधाता से पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा था । वह  ब्रह्म लोक में जा विधाता से विनय पूर्वक बोली -"प्रभो !"आप सृष्टिकर्ता और कारणों के भी कारण है । पुत्र के बिना गृहस्थ का क्या अर्थ अर्थात गार्हस्थ - जीवन नीरस और व्यर्थ ही है । पुत्र के बिना स्त्री पुरुष का जन्म अन्य धर्म सब निष्फल है । तप और दान का फल जन्म और जन्मांतर में सुख का हेतु होता है, परंतु पुत्र पुञ् नामक नरक से रक्षा करता है । इसलिए बंध्या को पुत्र किस उपाय से हो सकता है , आप कृपा पूर्वक कहें।।
           विधाता बोले," मैं तुम्हें एक व्रत  बतलाता हूं, जो संपूर्ण मनोरथो को देने वाला है तथा परम शुभद है ।  तुम इसका अनुष्ठान करोगी तो निश्चय ही श्रीहरि के समान श्रेष्ठ और पराक्रमी पुत्र प्राप्त कर लोगी । व्रत काल में वेदोक्त वस्तुओं का दान करते रहना चाहिए । यह व्रत माघ मास की त्रयोदशी के दिन से प्रारंभ किया जाता है । व्रती को चाहिए कि व्रत आरंभ से पहले दिन अर्थात द्वादशी को उपवास रखें तथा अगले दिन ब्रह्म मुहूर्त में शैय्या त्याग कर  नित्य कर्म से निवृत्त हो, श्री हरि के मंदिर में जा , उन्हें अर्ध्य दे  और  शीघ्र घर लौट कर ,किसी सुयोग्य ब्राह्मण को आचार्य पद के लिए वरण करके, स्वस्तिवाचन पूर्वक कलश स्थापन करें । फिर संकल्प सहित इस महान व्रत का अनुष्ठान प्रारंभ करें।
         देवी !पुत्र प्राप्ति के लिए कुष्मांड नारियल श्रीफल तथा जंबीर आदि फलों को श्रीहरि की सेवा में समर्पित करना चाहिए ।नाना प्रकार के वाद्यो संगीतों से श्रीहरि को प्रसन्न करना चाहिए, उनकी भक्ति की विशेष उपलब्धि के लिए सुगंधित पुष्पों की 100000 माला अर्पण करनी चाहिए । उनकी तुष्टि के लिए विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगाना चाहिए तथा इस काल में व्रति को प्रतिदिन एक सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
     " सुब्रते !प्रतिदिन पूजा के समय सुगंधित फूलों से भरी सौ अंजलियां समर्पित कर ,निखिल प्रभु के चरणों में  100 बार प्रणाम करना चाहिए । व्रत काल में 6 महीने तक हविष्यान्न( धान, तेल ,जौ ,मटर ,तिन्नी, साठी, दूध ,दही, घी ,शक्कर, लोंग, जीरा ,पीपल ,सेंधा नमक ,बथुआ ,मूली ,आम, इमली, कटहल ,नारंगी ,केला ,हर्रे और आंवला आदि हविष्यान्न कहे जाते हैं ) 5 मास तक फलाहार एक पक्ष तक हवी का आहार और एक पक्ष तक केवल जल पर ही निर्भर रहें।
         इस विधि से व्रत करके उसका उद्यापन करें। सुंदर वस्त्रों से आच्छादित अति उत्तम उपहारों से सज्जित 360 ड़लिया भोजन के पदार्थ और यज्ञोपवीत का दान करें 1360 घृत आहुतियां देकर हवन करें तथा इतने ही ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें एक स्वर्ण मुद्रा की दक्षिणा दें। इस व्रत के करने से श्री हरि के चरणों में  सुदृढ़ भक्ति हो जाती है, विख्यात पुत्र, पति - सौभाग्य एवं अपरिमित धन की प्राप्ति होती है ।
      लोक पितामह की प्रेरणा से सती शतरूपा ने इस परम शुभद व्रत को किया था और व्रत के प्रभाव से उनके यहां प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो सुंदर और यशस्वी बालक उत्पन्न हुए थे।       महाभाग देवहूति  ने भी व्रत करके श्रीहरि के अंश कपिल जी को पुत्र रूप में पा लिया था । देवमाता अदिति के यहां वामन भगवान उत्पन्न हुए थे । इस महिमामय व्रत के प्रभाव से अनेकानेक महाभाग पुत्रवती हुई है । प्राण वल्लभे ! तुम इस व्रत का श्रद्धा- भक्ति युक्त पालन करो ।तुम्हें निश्चय ही परम दुर्लभ पुत्र रत्न प्राप्त होगा ।"
       कर्पूरगौर ऐसे वचन सुन सती पार्वती ने भी यह पुण्यवान व्रत किया था। पुत्र उत्पत्ति की प्रसन्नता में स्वर्गापवर्ग दाता पार्वती नाथ की प्रेरणा से अनेक वाद्य बजने लगे । पुत्र की मंगल कामना से परमपिता शिव ने ब्राह्मणों बंदियों एवं भिक्षुको को नाना प्रकार के अपरिमित रत्नादि और बहुमूल्य संपत्ति का दान किया । प्राणी मात्र के सच्चे शुभैषी  जन्मदाता शिव के घर में शिशु के  प्रकट होने पर सभी देवता ऋषि गण आनंदोन्मत्त हो गए थे । उन सभी ने बालक के मंगल के लिए कामनाएं की । सभी वहां पधारे ऋषि-मुनियों ने बालक को आशीर्वाद दिये ।
   जैसे अन्य देवतादि गौरी नंदन को देखने आए थे उसी प्रकार सूर्य - पुत्र शनि ने भी भूत भावन के घर में प्रवेश किया । जगत जननी पार्वती नवागत शिशु को गोद में लिए विराजमान थी  महायोगी शनिदेव ने जननी पार्वती के चरणों में प्रणाम निवेदन किया। और मस्तक झुकाए खड़े रहे । जगदंबा ने उन्हें आशीष देकर उनसे कुशल समाचार पूछा और कहा-" ग्रहेश्वर !आपके नेत्र कुछ मुंदे हुए हैं और आपने सिर झुका रखा है, आप मेरी और मेरे पुत्र की ओर नहीं देख रहे ,उसका क्या हेतु है ?"
         "माता ! सभी प्राणी अपने कर्म का फल भोंगते हैं। शुभाशुभ कर्मों से ही सुख-दुख की प्राप्ति होती है । मेरी कथा गुप्त है ,माता !आपके सम्मुख कहने योग्य नहीं है । इतने पर भी आपकी आज्ञा का उल्लंघन मैं नहीं कर रहा हूं ।शंकर -प्रिये! बाल्यकाल से ही मैं श्री कृष्ण के चरणों का दास हूं, उनमें मेरी प्रगाढ़ भक्ति है।  मैं प्रायः उन्हीं के ध्यान में तल्लीन रहता था , सर्वथा विरक्त एवं तप -निरत था, किंतु पिता श्री ने चित्ररथ की पुत्री से मेरा परिणय करा दिया ।मेरी पत्नी साध्वी तेजस्विनी एवं तपस्विनी है । एक दिन की बात है कि वह ऋतु स्नान के पश्चात मेरे समीप आई थी उस समय मैं भगवत चरणों के ध्यान में लीन था और सर्वथा बाहरी ज्ञान से सुन्य था। अपनी अवहेलना वह सह न सकी और मुझे श्राप दे बैठी कि जिसकी और तुम देखोगे, वही छिन्नमस्तक हो जाएगा।
           "यद्यपि ध्यान से विरत हो, मैंने उसे संतुष्ट किया , किंतु वह पश्चाताप करने के बाद भी श्राप लौटाने में असमर्थ रही। इसी कारण मैं जीव हिंसा के भय से अपने नेत्रों से किसी की ओर दृष्टिपात नहीं करता।
        शनिदेव की ऐसी बात सुनकर जगदंबा हंसने लगी और कहने लगी -"संपूर्ण विश्व ईश्वर कि इच्छा की अधीनता मे है , तुम मेरी ओर तथा मेरे शिशु की ओर देखो।
       शनि देव ने मन -ही -मन विचार किया -मैं पार्वती - नंदन की ओर देखूं या नहीं ? यदि मैं इस दुर्लभ बालक की ओर देख लूंगा तो निश्चय ही इसका अनिश्ट होगा , किंतु सर्वेश्वरी की आज्ञा भी कैसे टाली जाए । इस प्रकार विचार कर योगी शनेश्वर देव ने धर्म को साक्षी रखकर गिरजा की ओर तो नहीं शिशु की ओर बाई आंख के कोने से दृष्टिपात किया । शनि देव की श्राप ग्रस्त दृष्टि पडते ही भगवती उमा के प्राण प्रिय पुत्र का सिर धड़ से अलग होकर दूर जा पड़ा । अत्यंत दुख से शनिश्चर ने अपनी आंख फेर ली और सिर झुका कर खड़े हो गए।
           अपने अंक में दुर्लभतम कम्बुकण्ठ शिशु  का खून से लथपथ देह देखकर माता पार्वती दुख से चीत्कार कर उठी । यह आश्चर्यजनक दृश्य देखकर वहां उपस्थित समस्त कैलासवासी अवसन्न हो गए। मस्तक विहीन और मूर्छित उमा को देखकर श्रीहरि गरुड़ पर आसीन होकर उत्तर दिशा की ओर चल पड़े ।वहां पुष्प भद्रा नदी के तीर पर उन्हें एक गज को परिवार सहित सोते देखा। गजेंद्र का सिर उत्तर की ओर था । यह देख श्री हरि ने उसका मस्तक अपने चक्र से काट डाला और उसे लेकर कैलाश पर आकर उसे मृत बच्चे के कबंध पर लगा दिया तथा अपनी योगमाया से उसे जीवित कर दिया और उन्होंने मोहनिवारिणी अंबिका को सचेत करके उनके पुत्र को उनकी गोद में बिठा दिया।
       बुद्धि रूपा शिवे! तुम भले -भाति जानती हो कि ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यंत सभी अपने -अपने कर्मों का फल भोंकते हैं ।''चक्रपाणि ने शोकाकुल उमा को समझाते हुए कहा ,''प्राणियों के स्वकर्म जनित भोग सैकड़ों कल्पों तक प्रत्येक युग में भोगने पड़ते हैं । सुख प्रसन्नता आनंद ए पुण्य कर्म के तथा दुःख ,भयादि पाप कर्म कर्म के परिणाम है।''
       श्री हरि की वाणी सुनकर वात्सल्य मई माता संतुष्ट हो गई और उन पर प्रभु से प्रणाम निवेदन किया । शिव और शिवा ने चक्रपाणि श्री हरि की स्तुति की । बच्चे के पुनः जीवित होने पर देव- समुदाय ने हर्षनाद किया । शुभ मुहूर्त देखकर श्री विष्णु ने बच्चे का संस्कार किया और आशीष प्रदान की -सुर  श्रेष्ठ मैंने सर्वप्रथम तुम्हारी पूजा की है अतः वत्स तुम सर्व पूज्य और योगेंद्र हो ओ।''
      कृष्ण कमल नयन ने रूद्र प्रिय बालक के गले में वरमाला पहनाई मोक्ष दायक ब्रह्म ज्ञान तथा संपूर्ण सिद्धियां दी और उन्हें अपने समान कर दिया तथा उनके  8 नाम रखें .........
          विघ्नेशश्च गणेशश्च हेरम्बश्च गजाननः ।
         लम्बोदरश्चैकदन्तश्च शूर्पकर्णो विनायकः।।
    विघ्नेश ,गणेश, हेरम्ब,गजानन ,लंबोदर ,एकदन्त शुर्पकर्ण और विनायक - ए सब बालक के नाम रखे गए ।
     इस प्रकार पार्वती - पुत्र गजमुख अग्र पूज्य हुए। 

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