शिव पुराण में विनायक के प्राकट्य की कथा

            । शिव पुराण ।
      शिव पुराण में विनायक के प्राकट्य की कथा इस प्रकार है भगवती पार्वती अपने प्राण पति भगवान शंकर के साथ कैलाश पर्वत पर आनंद पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी उनके साथ उनकी विजया और जया नाम की जो प्रिय सखी भी नहीं निवास करती थी एक दिन भगवती की दोनों सखियां विचार करके पार्वती जी से कहने लगी -"  हे हिमगिरि नंदिनी पार्वती सभी गण भगवान शिव के ही हैं नंदी भृंगी आदि गण जो हमारी सेवा में है वह भी भगवान शंकर की आज्ञा में ही तत्पर रहते हैं वे मात्र आशुतोष की अन्यता के कारण ही द्वार पालक बने हुए हैं यद्यपि यह भी हमारे ही हैं तथा आप कृपा करके हमारे लिए भी एक गण की रचना कर दीजिए।
       एक दिन की बात है कि शिवप्रिया उमा स्नानागार में जल क्रीड़ा कर रही थी ।द्वार पर नंदी खड़ा था । इसी समय लीलाधारी भगवान कामारि अपनी प्रिया के पास आए । द्वार पर खड़े नंदी ने उन्हें सूचना दी कि मां पार्वती स्नान कर रही हैं ,आप भीतर प्रवेश मत करिए । भूत भावन शंकर ने नंदी के इस निवेदन की उपेक्षा करते हुए द्वार के अंदर प्रवेश कर लिया और सीधे स्नानागार मैं भगवती के समीप पहुंचे । परम प्रभु शिव को अपने समीप देखकर उस हालत में भगवती लज्जित हो संकोच पूर्वक खड़ी हो गई । वह चकित थी कि द्वार पर नंदी के खड़े होने पर भी आशुतोष किस प्रकार यहां प्रवेश पा गए ।
    अब उन्हें अपने गुणवती और मधुर -हासिनी सखियों की बात याद आई । जया और विजया ठीक ही कहती थी । उन्होंने मन में विचार किया, द्वार पर यदि मेरा कोई निजी गण होता तो प्राणनाथ सासा स्नानागार में क्यों करा सकते थे ? निश्चय ही इन गानों पर मेरा पूर्ण अधिकार नहीं है । मेरा भी कोई ऐसा सेवक होना चाहिए जो कार्य -कुशल हो और मेरी आज्ञा का अक्षरसः पालन कर सके ।
      इस प्रकार मां पार्वती ने अपने योग बल से एक गण की रचना की । यह गण सभी गुणों से युक्त था। वह विशाल शरीर धारी परम सौभायमान और महान बल पराक्रम से संपन्न था। भगवती ने उसे नाना प्रकार के वस्त्र आभूषण एवं उत्तर वर देकर कहा-," तुम मेरे पुत्र हो ! तुम्हारे सामान प्यारा यहां मेरा दूसरा कोई नहीं है।"
      परम बुद्धिमान और परम पराक्रमी उस पुरुष ने माता पार्वती के चरणों में अत्यंत भक्तों के साथ प्रणाम करके विनय पूर्वक कहा -" माता आपकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य है आप जो चाहती हैं, कृपा करके मुझे कहें , प्राण रहते मैं आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूंगा ।
       तुम मेरे पुत्र हो सर्वथा मेरे हो महादेवी ने प्रसन्न होकर कहा।" तुम मेरे द्वारपाल बन जाओ । चाहे कोई हो, कहीं से आया हो, मेरी आज्ञा के बिना घर में प्रवेश नहीं होना चाहिए ।" इतना कह कर शिवप्रिया उमा ने उसे एक दंड दे दिया और अपने प्राण प्रिय दंड धारी गणराज को द्वार पर खड़ा कर दिया  ।"
          कुछ देर पश्चात शिव जी वहां आ पहुंचे ।"जैसे ही उन्होंने द्वार में प्रवेश करना चाहा तो गणराज ने कहा -" देव आप कहां जाना चाहते हैं ।आप माता की आज्ञा के बिना भीतर प्रवेश नहीं कर सकते । इस समय जगत जननी स्नान कर रही है , आप वापस लौट जाइए ।"
               शशांक शेखर शिव के प्राण प्रिय पुत्र से सर्वथा अपरिचित थे । चंद्रमौली बोले -" मूर्ख !तू किसे रोक रहा है । क्या तुझे पता नहीं मैं कौन हूं । मैं स्वयं शिव ही यहां आया हूं।"   
     मातृ भक्त वीर गणराज ने कहा -" आप चाहे जो कोई हो, किंतु माता की आज्ञा के बिना भीतर प्रवेश नहीं पा सकते ।"       
                  आश्चर्यचकित होकर पार्वती प्राण बल्लभ ने कहा -" अरे तू बड़ा मूर्ख है । मैं उसका पति हूं ,तू मेरे ही घर में मुझे जाने से रोक रहा है ।" यह कह कर भगवान शिव ने  अंदर प्रवेश करने का प्रयास किया । यह देखकर जगदंबा - पुत्र गणेश ने पुनः उन्हें रोक दिया ।
       लीला नायक कामारि ने अपने घणों से कहा -" यह कौन है ? मुझे अंदर प्रवेश करने से क्यों रोक रहा है ?"ऐसा कह कर स्वयं कुछ दूर जाकर खड़े हो गए 
        महेश्वर के गणों ने पार्वती - नंदन के समीप जाकर कहा-"  तुम कौन हो ?"कहां से आए हो ?" तुम्हारी इच्छा क्या है ?" यदि तुम अपने प्राणों की रक्षा चाहते हो तो शीघ्र ही यहां से चले जाओ ।"
     अत्यंत धीर वीर गिरजा नंदिनी नंदन ने निर्भय होकर शिवगणों से कहा - "पहले तुम बतालाओ, तुम कौन हो ? कहां से आए हो ? और तुम्हारा मंतव्य क्या है? अकारण मुझे धमकी देने वाले तुम यहां से चले क्यों नहीं जाते ?"
         हम मुख्य शिवगण और द्वारपाल हैं ।" शिवगण बुद्धि- विधाता गणेश से बोले । भूत - भावन की आज्ञा से हम तुम्हें यहां से हटाने आए हैं । तुम्हें भी गण समझ कर हम लोगों ने अभी तक कुछ नहीं कहा है । यदि अपनी खैर चाहते हो तो स्वतः ही यहां से चले जाओ ,अन्यथा ब्यर्थ में तुम्हें मृत्यु का वरण करना पड़ेगा ।"
      महाशक्ति के शक्तिमान पुत्र ने कहा -"मैं पार्वती का अनुचर हूं । माता ने मुझे आज्ञा दी है कि बिना मेरी आज्ञा, कोई भी अंदर प्रवेश न करें । तुम अपने स्वामी शिव के सेवक हो और अपने स्वामी की आज्ञा से मुझे यहां से हटाने आए हो, किंतु तुम्हारा दुराग्रह सफल नहीं होगा । मैं तो माता की आज्ञा का पालन करूंगा ही ।"
           शिवगणों ने  महेश्वर के समीप जाकर नम्रता पूर्वक  कहा -" प्रभो! वह बालक अपने आप को माता पार्वती का पुत्र बतलाता है और उन्हीं की आज्ञा से वहां खड़ा है । वह शक्तिमान तेजस्वी बालक द्वार से हटने को तैयार नहीं है और युद्ध करने को तत्पर है ।
      कर्पूरगौर शिव ने अपने गणों से सरोष कहा -" तुम एक बालक के सामने अवश्य हो गए ? वह बालक एकाकी है । यदि युद्ध भी करना पड़े तो करो , किंतु उसे द्वार से हटाओ।"
       शिव गणो ने अपने स्वामी के चरणों में प्रणाम किया तथा शस्त्र ले युद्ध को तत्पर पार्वती - नंदन के समीप  पहुंचे। शिवगणों को सशस्त्र अपनी ओर आते देख कर निर्भय होकर उसने कहा -"शिव के आज्ञाकारी गणों आओ , मैं अकेला ही महाशक्ति की आज्ञा का पालन करने वाला हूं । आज माता पार्वती अपने पुत्र का और त्रिपुरारी अपने गणों का बल देख लेंगे । अब भवानी और शिव का पक्ष लेकर बलवानों का बालक से युद्ध होगा आपने तो पहले भी बहुत से युद्ध की है तथा युद्ध करने में कुशल है यह मेरा पहला युद्ध है, और मैं एकाकी बालक हूं । गिरिजा और शिव के विवाद में हारने पर अवश्य ही तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा ।
        गणराज ने आगे कहा -" विजय और पराजय हमारी - तुम्हारी नहीं ,यह तो माता अंबिका और भगवान आशुतोष की होगी । तुम अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करो , मैं युद्ध के लिए तत्पर हूं ।"
      बालक   गणपत के इन तीक्ष्ण वाक्शरों से क्रुद्ध होकर  शिव गणों ने गणेश जी पर आक्रमण कर दिया । गणेश जी के भीषण प्रहारो से शीघ्र ही सब गण घबरा गए । उस समय शिव गणों को गणपत इस प्रकार दिखाई पड़ रहे थे , जिस प्रकार कल्प के अंत में भयंकर काल दिखलाई पड़ता है । वह सभी शक्ति-पुत्र के असह्य बाणों से अपने आप को बचा कर इधर-उधर भागने लगे । 
       शिव गणों का किसी बालक से भयंकर संग्राम हो रहा है, ऐसा समाचार नारद जिसे सुनकर विधाता और विष्णु भगवान दोनों कामारि के समीप जाकर बोले -"प्रभु इस समय आप कैसी लीला कर रहे हैं ?"
     विधाता और चक्रपाणि की बात सुनकर लीलाधारी शिव बोले -" ब्राह्मण ! मेरे द्वार पर एक अजेय दंड धारी बालक बैठा है , वह मुझे अपने ही घर में प्रवेश नहीं करने दे रहा है । उस पराक्रमी बालक ने मेरे सभी पार्षदों को पराजित कर दिया है, वह उसके तीक्ष्ण बाणों से घायल होकर भाग रहे हैं। आप नीति पूर्वक उसे समझाइए ।
     विधाता के शांत और नीत वचनों का भी बालक पर जब कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो विष्णु भगवान बोले - " देवेश्वर यह अजेय बालक छल द्वारा ही समाप्त हो सकता है । विभो मैं मोहित करता हूं, दूसरी ओर से आप इस पर प्रहार करिए ।"
      भगवान शिव ने 'तथास्तु' कहकर अपना त्रिशूल उठा लिया और दूसरी ओर से उन पर प्रहार किया । इस शर प्रहार से गणेश जी का मस्तक कटकर दूर जा गिरा । देवताओं और गणों ने संतोष की सांस ली और हर्ष अतिरेक में आकर मृदंग और ढोल वाद्य बजाकर नृत्य करने लगे ।
     अपनी शखियों द्वारा अपने पुत्र के शिरच्छेद काश वृत्तांत सुनकर और यह विदित होने पर की देव समुदाय और शिवगढड़ विजय उत्सव मना रहे रुद्राणी बेकल विह्वल हो गई जगत जननी पार्वती ने मन में विचार किया कि देवताओं ने और शिवगढ़ ने मिलकर जैसे मेरे पुत्र को समाप्त कर दिया है वैसे ही उन सबको में मृत्यु मुख में झोंक दूंगी क्योंकि पुत्र शोक को मैं सहन नहीं कर सकती  । ऐसा सोचकर माता पार्वती ने तेजस्विनी महा शक्तियों को उत्पन्न कर उन्हें आज्ञा दी कि किसी भी प्रकार का विचार किए बिना ही प्रलय मचा दो तुम लोग देव ऋषि गण यक्ष किन्नर स्वजन परिजन जिसको जहां पाओ भक्षण कर लो । फिर क्या था वह शक्तियां मिलकर अपने कोप से जहां भी जाती जिसे पाती समाप्त करती फिरने लगी सर्वत्र हाहाकार मच गया सभी सुर असुर अपने जीवन की आस त्याग कर आपस में मंत्रणा करने लगे सभी ने एक स्वर में कहा यदि शक्ति रूपा शिवा प्रसन्न हो जाएं तभी हम सब के प्राण बच सकते हैं । उसी समय देवर्षि नारद जी वहां पहुंचे सभी ने उन्हें अपनी व्यथा कथा कह सुनाई और कहा परमेश्वरी गिरिजा के प्रसन्न हुए बिना हमारा कल्याण संभव नहीं परंतु प्रधान नित्य सिद्धा पार्वती के समीप जाए कौन ?"
         नारद जी के साथ समस्त देवगण और ऋषिगण जगत जननी के समीप जा, उनकी स्तुति करने लगे -"जगदंबे आपको नमस्कार है, शिव पत्नी आपको प्रणाम है, अंबे आपको बारंबार प्रणाम है, चंडी के आप ही आदिशक्ति हैं, आप ही जगत की सृष्टि- स्थित- संहार करती है देवेशि! आपके कोप से त्रिलोकी विकल हो रहा है ।आप अब प्रसन्न हो जाओ और अपने क्रोध को शांत करो । देवी हम सब लोग आपके चरणों में शीश नवाते हैं ।
        इस प्रकार प्रार्थना कर समस्त देवता और ऋषि गण भगवती के सम्मुख हाथ जोड़कर शीश झुका कर खड़े हो गए। उनका स्तवन सुनकर सर्वलोक महेश्वरी पार्वती का हृदय द्रवित हो गया। और वह बोली ऋषियों यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाए । और आप लोगों के मध्य पूजनीय माना जाए तथा उसे सर्वाधिक शक्ति प्रदान किया जाए तभी लोक में शांति हो सकती है अन्यथा नहीं ।
     ऋषि गण बोले-" ठीक है वही करना चाहिए जिससे त्रिलोकी को सुख मिले ।"सभी त्रिलोक पति शिव के समीप पहुंचे और शिवा का संदेश उन्हें दिया ।
   कर्पूरगौर ने कहा ठीक है ,"तथा अपने गणों को आज्ञा दी," उत्तर की ओर जाओ और उत्तर की ओर सिर करके सोता हुआ जो प्राणी मिले उसी का मस्तक काटकर ले आओ । महेश्वर की आज्ञा पाकर उनके पार्षद उत्तर दिशा को चले गए। देवताओं ने मृत शिशु के कबंध को धो पोंछकर विधिपूर्वक उसका पूजन किया ।
     शिव गणों को सर्वप्रथम एक गज मिला, जिसका एक ही दांत था ।वे उसी गज का मस्तक लेकर आ गए। महेश्वर ने गज का  मस्तक बच्चे के शरीर से जोड़ दिया और अपने योग माया से बच्चे को जीवित कर दिया । वह सौभाग्यशाली बालक विचित्र आकार प्रकार का हो गया । उसका मस्तक हाथी का था, शरीर का रंग लाल था ,चेहरे पर प्रसन्नता खेल रही थी ,उसकी कमनीय आकृत से सुंदर प्रभा फैल रही थी।
           
        जननी ने प्रसन्न होकर अपने प्रिय पुत्र को गोद में उठा लिया और बोली- तुम्हें बड़ा कष्ट उठाना पदड़ा । तेरे मुख पर सिंदूर लगा है इसलिए जो मनुष्य सिंदूर गंध पुष्प आदि से तुम्हारी पूजा करेगा, उसके सब मनोरथ सफल होंगे। उसके सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा ।सभी देवताओं ने भी उन्हें पृथक पृथक वर प्रदान किए और उन्हें प्रथम पूज्य मान लिया। 

Comments

Popular posts from this blog

धनवंतरि स्तोत्र

नील सरस्वती स्तोत्र

शारदा चालीसा