श्रीमद भगवद गीता अध्याय 7 ज्ञान विज्ञानं योग

अध्याय ७ - ज्ञान विज्ञानं योग

भगवान शिव ने कहा, "मेरी प्यारी पार्वती, अब मैं आपको श्रीमद्भगवद-गीता के सातवें अध्याय की महिमा बताऊंगा, जिसे सुनकर, किसी को लगता है कि उसके कान दिव्य अमृत से भर गए हैं।

पाटलिपुत्र एक बड़े शहर का नाम है, जिसके कई बड़े द्वार हैं।  उस नगर में शंकुकर्ण नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जिसे उसने एक व्यवसायी के व्यवसाय में ले लिया था, और बहुत बड़ी संपत्ति अर्जित की थी।  लेकिन उन्होंने कभी किसी प्रकार की भक्ति नहीं की थी, न ही उन्होंने अपने पूर्वजों के लिए आवश्यक कर्मकांडों का प्रदर्शन किया था।  वह इतना धनवान हो गया कि बड़े-बड़े राजा भी उसके घर भोजन करते थे।  शंकुकर्ण भी सबसे कंजूस था, और उसने अपनी संपत्ति को जमीन के नीचे दबा रखा था।

एक बार, जब वह ब्राह्मण अपने बच्चों और अन्य रिश्तेदारों के साथ अपने चौथे विवाह के लिए जा रहा था, तो वे एक स्थान पर रात्रि विश्राम करने के लिए रुक गए।  जब वह सो रहा था, तभी एक सांप ने आकर उसे डस लिया।  जब उनके बेटों और रिश्तेदारों को पता चला कि उन्हें एक सांप ने काट लिया है, तो उन्होंने डॉक्टरों और मंत्र-जप करने वालों को बुलाया।  लेकिन कोई भी शंकुकर्ण की सहायता नहीं कर पाया और शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई।  उसके बाद उन्हें एक सर्प-भूत प्रेता-सर्प का शरीर प्राप्त हुआ।  केवल एक चीज जिसके बारे में वह सोच सकता था, वह थी उसकी संपत्ति, जिसे उस घर के पास दफनाया गया था जहां वह रहता था।  उसने अपने परिवार को अपनी संपत्ति के ठिकाने के बारे में भी नहीं बताया था।  प्रेत-सर्प के रूप में भी वह उस स्थान पर निवास करता था जहाँ उसकी संपत्ति को दफनाया गया था, ताकि कोई और उस धन को न ले सके।  कुछ समय बाद वह प्रेता-सर्प के रूप में फंसकर थक गया और वह अपने बेटों को सपने में दिखाई दिया और उनसे मदद करने का अनुरोध किया।  सुबह जब उसके आलसी बेटे जागे तो उन्होंने एक दूसरे को अपने देखे हुए सपने के बारे में बताया।  उनके एक पुत्र ने अपने हाथों में एक बड़ा खुदाई का यंत्र लिया और उस स्थान पर गया जहां पिता ने संकेत दिया था कि वह रह रहा है।  जब वे उस स्थान पर पहुंचे तो उन्होंने महसूस किया कि उन्हें उस स्थान के बारे में पता नहीं था जहां धन को दफनाया गया था।  वह बेटा असाधारण रूप से लालची था, और उसने बहुत देर तक खोजा, जब तक कि उसे एक सांप-छेद नहीं मिला, जिसे उसने तुरंत खोदना शुरू कर दिया।

कुछ ही देर में एक बहुत बड़ा और भयानक दिखने वाला सांप उस छेद से निकला और उसने कहा, "ओह, मूर्ख, तुम कौन हो?  तुम यहाँ क्यों आए हो?  आपको किसने भेजा है?  और तुम इस जगह पर खुदाई क्यों कर रहे हो?  मेरे सवालों का तुरंत जवाब दें।"

पुत्र ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हारा पुत्र हूँ।  मेरा नाम शिव है।  कल रात एक सपने में मैंने देखा कि इस जगह पर छिपे हुए खजाने दबे हुए थे और मैं उन्हें लेने आया था।  जब उन्होंने शिव को इस तरह बोलते हुए सुना तो प्रेता सर्प हंसने लगे और कहा, "यदि आप मेरे पुत्र हैं, तो आप मुझे इस नारकीय स्थिति से मुक्त करने के लिए आवश्यक अनुष्ठान क्यों नहीं कर रहे हैं।  पिछले जन्म में लोभ के कारण मुझे यह शरीर प्राप्त हुआ और अब तुम उसी ओर बढ़ रहे हो।

बेटे ने पूछा, "मेरे प्यारे पिता, कृपया मुझे बताएं कि आप इस नारकीय स्थिति से कैसे मुक्त हो सकते हैं?"  प्रेत-सर्प ने कहा, "किसी भी प्रकार के दान, तपस्या या यज्ञ से नहीं, केवल भगवद-गीता के सातवें अध्याय के पाठ से मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो पाऊंगा।  मेरे प्रिय पुत्र कृपया श्राद्ध संस्कार करें और उस दिन, एक ब्राह्मण को आमंत्रित करें, जो भगवद-गीता के सातवें अध्याय का जप करने की आदत में है और उसे बहुत ही शानदार ढंग से खिलाएं।

तत्पश्चात, शिव ने अपने अन्य भाई के साथ अपने पिता के निर्देशों को पूरा किया और जब ब्राह्मण श्रीमद् भगवद-गीता के सातवें अध्याय का जप कर रहे थे, तब संकुकर्ण ने एक प्रेता-सर्प के उस भयानक शरीर को त्याग दिया और एक दिव्य चतुर्भुज शरीर प्राप्त किया।  उस समय उन्होंने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया और उन्हें बताया कि उनका धन कहाँ है और फिर वे वैकुंठ के लिए रवाना हो गए।

वे पुत्र, जिनका मन भगवान कृष्ण की भक्ति में स्थिर हो गया था, उन्होंने उस धन का उपयोग मंदिर बनाने, कुएँ और प्रकार की खुदाई करने और खाद्य सामग्री वितरित करने के लिए किया।  वे सभी प्रतिदिन श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का पाठ करते थे।  और बहुत जल्दी उन्होंने भगवान कृष्ण के चरण कमलों को प्राप्त किया।

भगवान शिव ने कहा, "मेरी प्यारी पार्वती, मैंने आपको भगवद-गीता के सातवें अध्याय की अद्भुत महिमा बताई है।  जो कोई भी इस विवरण को सुनेगा, वह सभी पापों से मुक्त हो जाएगा।"

(विज्ञान सहित तत्व-ज्ञान) 
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ (१)


भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! अब उसको सुन जिससे तू योग का अभ्यास करते हुए मुझमें अनन्य भाव से मन को स्थित करके और मेरी शरण होकर सम्पूर्णता से मुझको बिना किसी संशय के जान सकेगा। (१)

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ (२)


भावार्थ : अब मैं तेरे लिए उस परम-ज्ञान को अनुभव सहित कहूँगा, जिसको पूर्ण रूप से जानने के बाद भविष्य में इस संसार में तेरे लिये अन्य कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहेगा। (२)

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ (३)


भावार्थ : हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है। (३)

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥(४)


भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति है। (४)

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥ (५)


भावार्थ : हे महाबाहु अर्जुन! परन्तु इस जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति (माया) के अतिरिक्त अन्य चेतन दिव्य-स्वरूप परा प्रकृति (आत्मा)को जानने का प्रयत्न कर, जिसके द्वारा जीव रूप से संसार का भोग किया जाता है। (५)

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ (६)


भावार्थ : हे अर्जुन! तू मेरी इन जड़ तथा चेतन प्रकृतियों को ही सभी प्राणीयों के जन्म का कारण समझ, और मैं ही इस सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय का मूल कारण हूँ। (६)

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ (७)


भावार्थ : हे धनंजय! मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, जिस प्रकार माला में मोती धागे पर आश्रित रहते हैं उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत मणियों के समान मुझ पर ही आश्रित है। (७)


(प्रकृति में भगवान का प्रसार)
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ (८)


भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, समस्त वैदिक मन्त्रो में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ और मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ भी मैं हूँ। (८)

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ (९)


भावार्थ : मैं पृथ्वी में पवित्र गंध हूँ, अग्नि में उष्मा हूँ, समस्त प्राणीयों में वायु रूप में प्राण हूँ और तपस्वियों में तप भी मैं हूँ। (९)

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ॥ (१०)


भावार्थ : हे पृथापुत्र! तू मुझको ही सभी प्राणीयों का अनादि-अनन्त बीज समझ, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी मनुष्यों का तेज हूँ। (१०)

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ (११)


भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं बलवानों का कामना-रहित और आसक्ति-रहित बल हूँ, और सब प्राणीयों में धर्मानुसार(शास्त्रानुसार) विषयी जीवन हूँ। (११)

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ (१२)


भावार्थ : प्रकृति के तीन गुण - सत्त्व-गुण, रज-गुण और तम-गुण से उत्पन्न होने वाले भाव उन सबको तू मुझसे उत्पन्न होने वाले समझ, परन्तु प्रकृति के गुण मेरे अधीन रहते है, मैं उनके अधीन नही हूँ। (१२)


(भक्त और अभक्त का निरुपण)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥ (१३)


भावार्थ : प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं। (१३)

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ (१४)


भावार्थ : यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी अपरा शक्ति स्वरुप माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं। (१४)

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ (१५)


भावार्थ : मनुष्यों में अधर्मी और दुष्ट स्वभाव वाले मूर्ख लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते है, ऐसे नास्तिक-स्वभाव धारण करने वालों का ज्ञान मेरी माया द्वारा हर लिया जाता है। (१५)

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ (१६)


भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले (१) आर्त - दुख से निवृत्ति चाहने वाले, (२) अर्थार्थी - धन-सम्पदा चाहने वाले (३) जिज्ञासु - केवल मुझे जानने की इच्छा वाले और (४) ज्ञानी - मुझे ज्ञान सहित जानने वाले, भक्त मेरा स्मरण करते हैं। (१६)

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ (१७)


भावार्थ : इनमें से वह ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ है जो सदैव अनन्य भाव से मेरी शुद्ध-भक्ति में स्थित रहता है क्योंकि ऎसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय होता हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय होता है। (१७)

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥ (१८)


भावार्थ : यधपि ये चारों प्रकार के भक्त उदार हृदय वाले हैं, परन्तु मेरे मत के अनुसार ज्ञानी-भक्त तो साक्षात्‌ मेरा ही स्वरूप होता है, क्योंकि वह स्थिर मन-बुद्धि वाला ज्ञानी-भक्त मुझे अपना सर्वोच्च लक्ष्य जानकर मुझमें ही स्थित रहता है। (१८)

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (१९)


भावार्थ : अनेकों जन्मों के बाद अपने अन्तिम जन्म में ज्ञानी मेरी शरण ग्रहण करता है उसके लिये सभी के हृदय में स्थित सब कुछ मैं ही होता हूँ, ऎसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है। (१९)


(देवताओं को पूजने वालों का निरुपण)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ (२०)


भावार्थ : जिन मनुष्यों का ज्ञान सांसारिक कामनाओं के द्वारा नष्ट हो चुका है, वे लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूर्व जन्मों के अर्जित संस्कारों के कारण प्रकृति के नियमों के वश में होकर अन्य देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। (२०)

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥ (२१)


भावार्थ : जैसे ही कोई भक्त जिन देवी-देवताओं के स्वरूप को श्रद्धा से पूजने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को उन्ही देवी-देवताओं के प्रति स्थिर कर देता हूँ। (२१)

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥ (२२)


भावार्थ : वह भक्त सांसारिक सुख की कामनाओं से श्रद्धा से युक्त होकर उन देवी-देवताओं की पूजा-आराधना करता है और उसकी वह कामनायें पूर्ण भी होती है, किन्तु वास्तव में यह सभी इच्छाऎं मेरे द्वारा ही पूरी की जाती हैं। (२२)

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ (२३)


भावार्थ : परन्तु उन अल्प-बुद्धि वालों को प्राप्त वह फल क्षणिक होता है और भोगने के बाद समाप्त हो जाता हैं, देवताओं को पूजने वाले देवलोक को प्राप्त होते हैं किन्तु मेरे भक्त अन्तत: मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (२३)


(अल्प-ज्ञानी और पूर्ण-ज्ञानी मनुष्य के लक्षण)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥ (२४)


भावार्थ : बुद्धिहीन मनुष्य मुझ अप्रकट परमात्मा को मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला समझते हैं इसलिय वह मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी स्वरूप के परम-प्रभाव को नही समझ पाते हैं। (२४)

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ॥ (२५)


भावार्थ : मैं सभी के लिये प्रकट नही हूँ क्योंकि में अपनी अन्तरंगा शक्ति योग-माया द्वारा आच्छादित रहता हूँ, इसलिए यह मूर्ख मनुष्य मुझ अजन्मा, अविनाशी परमात्मा को नहीं समझ पाते है। (२५)

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ (२६)


भावार्थ : हे अर्जुन! मैं भूतकाल में, वर्तमान में और भविष्य में जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने वाले सभी प्राणीयों को जानता हूँ, परन्तु मुझे कोई नही जानता है। (२६)

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ (२७)


भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! संसार में सभी प्राणी इच्छा-द्वेष आदि द्वन्दों से उत्पन्न मोह के कारण जन्म लेकर पुन: मोह को प्राप्त होते हैं। (२७)

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ (२८)


भावार्थ : परन्तु जिस मनुष्य ने पूर्व-जन्मों में और इस जन्म में पुण्य-कर्म किये हैं तथा उसके सभी पाप पूर्ण-रूप से नष्ट हो चुके हैं, वह दृढ-संकल्प के साथ मेरी भक्ति करके मोह आदि सभी द्वन्दों से मुक्त हो जाता हैं। (२८)

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥ (२९)


भावार्थ : जो मनुष्य मेरी शरण होकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने की इच्छा करता है, ऎसे मनुष्य उस ब्रह्म को, परमात्मा को और उसके सभी कर्मों को पूरी तरह से जानता हैं। (२९)

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ (३०)


भावार्थ : जो मनुष्य मुझे अधिभूत (सम्पूर्ण जगत का कर्ता), अधिदैव (सम्पूर्ण देवताओं का नियन्त्रक) तथा अधियज्ञ (सम्पूर्ण फ़लों का भोक्ता) सहित जानता हैं और जिसका मन निरन्तर मुझमें स्थित रहता है वह मनुष्य मृत्यु के समय में भी मुझे जानता है। (३०)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भगवद्‍ज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ 
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद् भगवदगीता में श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के संवाद में भगवद्‍ज्ञान-योग नाम का सातवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत्।। 

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