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हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति)

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हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत ,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे ‘वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है।                विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है।             यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं।           अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम “हिन्दु आगम” है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने

पूर्णब्रह्म स्तोत्रम्

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पूर्णब्रह्म स्तोत्रम् पूर्णचन्द्रमुखं निलेन्दु रूपम् उद्भाषितं देवं दिव्यं स्वरूपम् पूर्णं त्वं स्वर्णँ त्वं वर्णं त्वं देवम् पिता माता बंधु त्वमेव सर्वम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् ।।१।। कुंचि तकेशं च संचितवेशम् वर्तुलस्थूलनयनं ममेशम् पीनकनीनि का नयनकोशम् आकृष्टओष्ठं च उत्कृष्टश्वा सम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् ।।२।। नीलाचले चंचलया सहितम् आदिदेव निश्चला नंदे स्थितम् आनन्दकन्दं विश्वविन्दुचंद्रम् नंदनन्दनं त्वं इन्द्रस्य इन्द्रम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् ।।३।। सृष्टि स्थिति प्रलयसर्वमूलं सूक्ष्माति सुक्ष्मं त्वं स्थूला तिस्थूलम् कांति मयानन्तं अन्ति मप्रान्तं प्रशांतकुन्तलं ते मूर्त्तिमंतम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् जगन्नाथ स्वामी भक्तभावप्रेमी नमा म्यहम् ।।४।। यज्ञतपवेदज्ञा ना त् अती तं भा वप्रेमछंदे सदा वशि त्वम् शुद्धा त् शुद्धं त्वं च पूर्णा त् पूर्णं कृष्ण मेघतुल्यं अमूल्यवर्णं जगन्नाथ स्वामी भक्

कर्म का फल

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*विष्णु जी की ये कहानी पढोगे तो आपका उद्धार ज़रुर होगा*🌹 कष्टों और संकटो से मुक्ति पाने के लिए विष्णु जी ने मनुष्य के कर्मो को ही महत्ता दी है। उनके अनुसार आपके कर्म ही आपके भविष्य का निर्धारण करते हैं। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले लोगों का उद्धार होना संभव नहीं है। भाग्य और कर्म को अच्छे से समझने के लिए पुराणों में एक कहानी का उल्लेख मिलता है। एक बार देवर्षि नारद जी बैकुंठ धाम गए। वहां नारद जी ने श्रीहरि से कहा, "प्रभु! पृथ्वी पर अब आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कोई अच्छा फल नहीं प्राप्त हो रहा, जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है।’’ तब श्री विष्णु ने कहा, "ऐसा नहीं है देवर्षि जो भी हो रहा है सब नियति के जरिए हो रहा है।’’ वही उचित है। नारद जी बोले, "मैंने स्वयं अपनी आंखो से देखा है प्रभु, पापियों को अच्छा फल मिल रहा है और, धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बुरा फल मिल रहा है।’’ विष्णु जी ने कहा, “कोई ऐसी घटना का उल्लेख करो।” नारद ने कहा अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं। वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने नहीं आ रहा था। तभी एक चोर वहाँ से

तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्‌

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या देवी सर्वभूतेषु देवी से आरंभ देवी सूक्त देवी का सबसे असरकारी पाठ माना गया है। नवरात्रि में प्रतिदिन (प्रातः, मध्यान्ह एवं सायंकाल में) तीन पाठ करने का विधान है। यहां पढ़ें संपूर्ण पाठ ....  नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता स्मरताम। ॥1॥   रौद्रायै नमो नित्ययै गौर्य धात्र्यै नमो नमः। ज्योत्यस्त्रायै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥2॥   कल्याण्यै प्रणतां वृद्धयै सिद्धयै कुर्मो नमो नमः। नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥3॥   दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै। ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥4॥   अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः। नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै नमो नमः ॥5॥   या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥6॥   या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥7॥   या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥8॥   या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस

योग निद्रा स्तुति

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योगनिद्रास्तुति:} ऊँ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्। निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु:।।1।। अर्थ –  जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरुप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे.                     ब्रह्मोवाच त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कार: स्वरात्मिका। सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।।2।। अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:। त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा।।3।। अर्थ –  देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्ही स्वधा और तुम्ही वषटकार हो. स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं. तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो. नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरुपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रुप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो. देवि! तुम्ही संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो.   त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्। त्वयै

मां दुर्गा देव्यापराध क्षमा प्रार्थना स्तोत्रं

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मां दुर्गा देव्यापराध क्षमा प्रार्थना स्तोत्रं माँ दुर्गा की पूजा समाप्ति पर करें ये स्तुति, तथा पूजा में हुई त्रुटि के अपराध से मुक्ति पाएँ। न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा: । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥ 1 ॥ विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् । तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ 2 ॥ पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला: परं तेषां मध्ये विरलतरलोSहं तव सुत: । मदीयोSयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ 3 ॥ जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ 4 ॥ परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि । इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ 5 ॥ श्वपाको जल्पाको भवति

श्री दुर्गा कवच एवं श्री दुर्गा कवच पाठ करने के लाभ

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प्रतिदिन दुर्गा माता के कवच का पाठ करने से क्या फायदा होता है हिंदू धर्म में माँ दुर्गा को सबसे अधिक पूजा जाता है. कहा जाता है कि दुर्गा माँ ने अपने नौ अवतारों में जन्म लिया और संसार पर दुष्टों का नाश किया. महिषासुर जैसे बड़े दानव भी दुर्गा माँ के चंडी रूप से मात खा चुके हैं. ऐसी मान्यता है कि जब भी संसार में पाप बढ़ जाता है तो दुर्गा माँ किसी ना किसी रूप में धरती पर आती है और बुराई का अंत करती हैं. दुर्गा माँ की महिमा का गुणगान करने के लिए हर साल भारत में जगह जगह दुर्गा पूजन किया जाता है. इसे कुछ लोग नवरात्रि के नाम से भी जानते हैं. लकिन आज हम आपको माँ दुर्गा कवच  के बारे में बताने जा रहे हैं. इस संसार में जितने भी कवच है, उनमे से दुर्गा कवच को सबसे उत्तम माना गया है. दुर्गा कवच सभी भक्तों को सुरक्षा प्रदान करने वाला कवच है इसलिए यह बेहद दुर्लभ माना गया है. माँ दुर्गा कवच क्या है? माँ दुर्गा कवच  संसार के अठारह पुराणों में से सबसे शक्तिशाली पुराण मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है. यह कवच एक तरह से मां दुर्गा का पाठ है जो हमें साहस और हिम्मत प्रदान करता है और दुष्टों से हमारी र

श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र

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  श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र श्री दुर्गा सप्तशती के मंगलाचरण मंत्रों में से एक है और श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र में बताया गया है कैसे आप माँ को खुश कर सकते हैं. ऐसे में श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र में दुर्गा मां के 108 नामों का वर्णन किया गया है और इन नामों का वर्णन करते हुए शिव जी ने कहा है कि अगर दुर्गा या सती को इन 108 नामों से सम्बोधित किया जाए को मां हर मनोकामना पूरी कर देती है. तो आइए आज हम आपको बताते हैं ।। श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ईश्‍वर उवाच शतनाम प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व​ कमलानने। यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥ ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी। आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥ पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः। मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥३॥ सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी। अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥ शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्‍‌नप्रिया सदा। सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥ अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥ अमेयविक्रमा क

सिद्ध लक्ष्मी स्तोत्र

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सिद्ध लक्ष्मी स्तोत्र आकारब्रह्मरूपेण ओंकारं विष्णुमव्ययम् । सिद्धिलक्ष्मि! परालक्ष्मि! लक्ष्यलक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ याः श्रीः पद्वने कदम्बशिखरे राजगृहे कुंजरे  श्वेते चाश्वयुते वृषे च युगले यज्ञे च यूपस्थिते । शंखे देवकुले नरेन्द्रभवने गंगातटे गोकुले या श्रीस्तिष्ठति सर्वदा मम गृहे भूयात् सदा निश्चला ॥ या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी गम्भीरावर्तनाभिः स्तनभरनमिता शुद्धवस्त्रोत्तरीया । लक्ष्मिर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैः स्नापिता हेमकुम्भै- र्नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ॥ ॥ इति सिद्धिलक्ष्मीस्तुतिः समाप्ता ॥   लक्ष्मी जी की आरती ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता तुमको निशदिन सेवत, मैया जी को निशदिन सेवत हरि विष्णु विधाता ॐ जय लक्ष्मी माता-2 उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॐ जय लक्ष्मी माता-2 दुर्गा रूप निरंजनी, सुख सम्पत्ति दाता जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता ॐ जय लक्ष्मी माता-2 तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनी, भवनिधि की त्राता

अपराजिता स्त्रोत्र

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   ॐ अपराजितादेवी को नमस्कार । विनियोग ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव बृहस्पति-मार्कण्डेया ऋषयः  गायत्रि उष्णिग् अनुष्टुब् बृहति-छन्दांसि, लक्ष्मीनृसिंहो देवता,  ॐ  क्लीँ श्रीं ह्रीं बीजम्, हुं शक्तिः, सकलकामनासिद्ध्यर्थम् अपराजिताविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः। (इस वैष्णवी अपराजिता महाविद्या के वामदेव बृहस्पति मार्कण्डेय ऋषि गायत्री उष्णिग् अनुष्टुप् बृहति छन्द, लक्ष्मी नरसिंह देवता क्लीँ बीजम्, हुं शक्ति, सकलकामना सिद्धिके लिये अपराजिता विद्या मन्त्रपाठ में विनियोग।) नीलकमलदल के समान श्यामल रंग वाली भुजङ्गों के आभरण से युक्त शुद्धस्फटिकके समान उज्ज्वल तथा कोटी चन्द्र के समान मुख वाली, शंख चक्र धारण करने वाली बालचन्द्र मस्तक पर धारण करने वाली, वैष्णवी अपराजिता देवीको नमस्कार करके महान् तपस्वी मार्कण्डेय ऋषि ने इस स्तोत्र का पाठ किया ।3। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा – हे मुनियो सर्वार्थ सिद्धिदेनेवाली असिद्धसाधिका वैष्णवी अपराजिता देवी (के इस स्तोत्र) को सुने। 4।  ॐ नारायण भगवानको नमस्कार वासुदेव भगवान को नमस्कार, अनन्तभगवान् को नमस्कार जो सहस्र सिर वाले क्षीर साग

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति)

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हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत ,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे ‘वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है।                विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है।             यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं।           अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम “हिन्दु आगम” है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने

तांबे का पात्र भगवान विष्णु को क्यों प्रिय है

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🙏🌹"ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय"🌹🙏 "क्यों प्रिय है भगवान विष्णु को ताम्र-पात्र " *कैसे प्रारम्भ हुई ताम्रपात्रों में पूजा ?* हिन्दू संस्कृति में जब हम पूजा-पाठ व आराधना आदि करते हैं, तब पात्र-साधन में समान्यतः ताम्र धातु से हीं निर्मित पात्रों (बर्तन) का हीं विशेषकर प्रयोग करते हैं । क्या आपने कभी सोचा है, कि आखिर ऐसा क्यों ? आइये, आज हम जानते हैं कि क्या है ताम्र-पात्र में पूजा करने का पौराणिक रहस्य !  ताम्र-पात्र से संबंधित यह रहस्यमयी कथा एक दैत्य से जुड़ी हुई है, जो भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। अब आगे... सृष्टि के प्रारम्भ में हीं 'गुड़ाकेशʼʼ नाम का एक परम प्रतापी दैत्य भगवान विष्णु का परम भक्त था। भगवान विष्णु के चरणों में उसे अनन्य प्रीति थी। वह राक्षस बड़ा हीं मायावी था।  क्यों प्रिय है भगवान विष्णु को ताम्र पात्र ? एकबार भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ताँबे का शरीर धारण कर वह पूर्ण दृढता और विश्वास से चौदह हजार वर्षों तक कठिन तपस्या करता रहा। उसके विश्वास और श्रद्धा से युक्त तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे अपने पूर्ण रूप में दर्शन

सप्तर्षि

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ऋषि महत्व और उनके योगदान ----------------------महत्वपूर्ण जानकारी----------------- #अंगिरा_ऋषि 👉 ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी। #विश्वामित्र_ऋषि 👉 गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही। #वशिष्ठ_ऋषि 👉 ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं। #कश्यप_ऋषि 👉 मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई। #जमदग्नि_ऋषि 👉 भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे। #अत्रि_ऋषि

पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है?

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पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है?  〰️〰️🔸〰️🔸〰️🔸〰️〰️ शास्त्रों में पत्नी को वामंगी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है बाएं अंग का अधिकारी। इसलिए पुरुष के शरीर का बायां हिस्सा स्त्री का माना जाता है। इसका कारण यह है कि भगवान शिव के बाएं अंग से स्त्री की उत्पत्ति हुई है जिसका प्रतीक है शिव का अर्धनारीश्वर शरीर। यही कारण है कि हस्तरेखा विज्ञान की कुछ पुस्तकों में पुरुष के दाएं हाथ से पुरुष की और बाएं हाथ से स्त्री की स्थिति देखने की बात कही गयी है। शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री पुरुष की वामांगी होती है इसलिए सोते समय और सभा में, सिंदूरदान, द्विरागमन, आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन के समय स्त्री पति के बायीं ओर रहना चाहिए। इससे शुभ फल की प्राप्ति होती। वामांगी होने के बावजूद भी कुछ कामों में स्त्री को दायीं ओर रहने के बात शास्त्र कहता है। शास्त्रों में बताया गया है कि कन्यादान, विवाह, यज्ञकर्म, जातकर्म, नामकरण और अन्न प्राशन के समय पत्नी को पति के दायीं ओर बैठना चाहिए। पत्नी के पति के दाएं या बाएं बैठने संबंधी इस मान्यता के पीछे तर्क यह है कि जो कर्म संसारिक होते हैं उसमें पत्न

भगवान जगन्नाथ जी

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एक बार तुलसीदास जी महाराज  को किसी ने बताया  की जगन्नाथ जी मैं तो साक्षात भगवान ही दर्शन देते हैं बस फिर क्या था सुनकर तुलसीदास जी महाराज तो बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्रीजगन्नाथपुरी को चल दिए।  महीनों की  कठिन  और  थका देने वाली यात्रा के उपरांत  जब वह जगन्नाथ पुरी पहुंचे तो मंदिर में भक्तों की भीड़ देख कर प्रसन्नमन से अंदर प्रविष्ट हुए। जगन्नाथ जी का दर्शन करते ही उन्हें बड़ा धक्का सा लगा  वह निराश हो गये। और विचार किया कि यह हस्तपादविहीन देव हमारे जगत में सबसे सुंदर नेत्रों को सुख देने वाले मेरे इष्ट श्री राम नहीं हो सकते। इस प्रकार दुखी मन से बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये। सोचा कि इतनी दूर आना ब्यर्थ हुआ। क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपादविहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है? कदापि नहीं। रात्रि हो गयी, थके-माँदे, भूखे-प्यासे तुलसी का अंग टूट रहा था।  अचानक एक आहट हुई। वे ध्यान से सुनने लगे। अरे बाबा ! तुलसीदास कौन है.? एक बालक हाथों में थाली लिए पुकार रहा था। आपने सोचा साथ आए लोगों में से शायद किसी ने पुजारियों को बता दिया होगा कि तुलसीदास

दुर्गा सप्तश्लोकी कवच अर्गला कीलक एवं रात्रि सूक्त

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देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी। कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्रतः॥ देव्युवा च श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌। मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥ विनियोग ः ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमह्मकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः। ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हिसा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥ सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥ शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥ रोगानशोषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥ सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्