स्वस्तिवाचन एवं शांति पाठ
स्वस्तिवाचन
कोई भी शुभ कार्य प्रारम्भ करते समय मंगल कामना की जाती है, जिसके हेतु गणपति महाराज और माँ भगवती-अम्बिका का ध्यान किया जाता है।
स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते हैं. यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया ‘स्वस्तिवाचन’ कहलाती है।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय प्रार्थना की जाती है कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता है जिससे उनमें कोई रोग ना लगे। गायों को खूब बच्चे उत्पन्न करें।
यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है ताकि यात्रा सफल और सुरक्षित हो, मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू ना मिलें। व्यापार में लाभ हो। अच्छे मौसम के लिए भी इस मन्त्र का जाप किया जाता है, जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।
पुत्रजन्म पर स्वस्तिक मंत्र अत्यावश्यक है। इससे बच्चा स्वस्थ रहता है, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता है। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी इस मंत्र का उपयोग किया जाता है। स्वस्तिक मंत्र शरीर रक्षा, सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होता है।
स्वस्तिवाचन :: यजमान हाथ में पुष्प लेकर गणेश जी महाराज और माँ अम्बिका का ध्यान करें करते हुए निम्न मन्त्रों का पाठ-उच्चारण करें :-
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक:॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:। द्वद्शैतानि नामानि यः पठे च्छ्रिणुयादपी॥
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व्विघ्नोपशान्तये॥
अभिप्सितार्थ सिद्ध्यर्थं पूजितो य: सुरासुरै:। सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नम:॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बिके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम्। येषां हृदयस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरि:॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेन्घ्रियुगं स्मरामि॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय:। येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दन:॥
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
अनन्यास्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
स्मृतेःसकल कल्याणं भाजनं यत्र जायते। पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरम्॥
सर्वेष्वारंभ कार्येषु त्रय:स्त्री भुवनेश्वरा:। देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दना:॥
विश्वेशम् माधवं दुन्धिं दण्डपाणिं च भैरवम्।
वन्दे कशी गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्॥
वक्रतुण्ड् महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
ॐ श्री गणेशाम्बिका भ्यां नम:।
हाथ में लिया हुआ पुष्प गणेश जी महाराज माँ अम्बिका की मूर्ति या सुपारी से बनाए हुए भगवान् पर चढ़ा दें। इसके पश्चात दाँये हाथ में पुष्प, कुश, तिल, जौ, जल, द्रव्य लेकर संकल्प करना चाहिए।
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।
देवा नोयथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥1॥
हमारे पास चारों ओर से ऐंसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों। प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें।
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्।
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥2॥
यजमान की इच्छा रखने वाले देवताओं की कल्याण कारिणी श्रेष्ठ बुद्धि सदा हमारे सम्मुख रहे, देवताओं का दान हमें प्राप्त हो, हम देवताओं की मित्रता प्राप्त करें, देवता हमारी आयु को जीने के निमित्त बढ़ायें।
तान् पूर्वयानिविदाहूमहे वयंभगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।
अर्यमणंवरुणंसोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥3॥
हम वेदरुप सनातन वाणी के द्वारा अच्युतरुप भग, मित्र, अदिति, प्रजापति, अर्यमण, वरुण, चन्द्रमा और अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं। ऐश्वर्यमयी सरस्वती महावाणी हमें सब प्रकार का सुख प्रदान करें।
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥4॥
वायुदेवता हमें सुखकारी औषधियाँ प्राप्त करायें। माता पृथ्वी और पिता स्वर्ग भी हमें सुखकारी औषधियाँ प्रदान करें। सोम का अभिषव करने वाले सुखदाता ग्रावा उस औषधरुप अदृष्ट को प्रकट करें। हे अश्विनी-कुमारो! आप दोनों सबके आधार हैं, हमारी प्रार्थना सुनिये।
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥5॥
हम स्थावर-जंगम के स्वामी, बुद्धि को सन्तोष देनेवाले रुद्रदेवता का रक्षा के निमित्त आवाहन करते हैं। वैदिक ज्ञान एवं धन की रक्षा करने वाले, पुत्र आदि के पालक, अविनाशी पुष्टि-कर्ता देवता हमारी वृद्धि और कल्याण के निमित्त हों।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥6॥
महती कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें।
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह॥7॥
चितकबरे वर्ण के घोड़ों वाले, अदिति माता से उत्पन्न, सबका कल्याण करने वाले, यज्ञशालाओं में जाने वाले, अग्निरुपी जिह्वा वाले, सर्वज्ञ, सूर्यरुप नेत्र वाले मरुद्गण और विश्वेदेव देवता हविरुप अन्न को ग्रहण करने के लिये हमारे इस यज्ञ में आयें।
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥8॥
हे यजमान के रक्षक देवतागण! हम दृढ अंगों वाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं को देखें, देवताओं की उपासना-योग्य आयु को प्राप्त करें।
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥9॥
हे देवता गण! आप सौ वर्ष की आयु-पर्यन्त हमारे समीप रहें, जिस आयु में हमारे शरीर को जरावस्था प्राप्त हो, जिस आयु में हमारे पुत्र पिता अर्थात् पुत्रवान् बन जाएँ, हमारी उस गमनशील आयु को आपलोग बीच में खण्डित न होने दें।
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।
विश्वेदेवा अदितिः पंचजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥10॥
अखण्डित पराशक्ति स्वर्ग है, वही अन्तरिक्ष-रुप है, वही पराशक्ति माता-पिता और पुत्र भी है। समस्त देवता पराशक्ति के ही स्वरुप हैं, अन्त्यज सहित चारों वर्णों के सभी मनुष्य पराशक्तिमय हैं, जो उत्पन्न हो चुका है और जो उत्पन्न होगा, सब पराशक्ति के ही स्वरुप हैं।
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥11॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
द्युलोक शान्तिदायक हों, अन्तरिक्ष लोक शान्तिदायक हों, पृथ्वी लोक शान्तिदायक हो। जल, औषधियाँ और वनस्पतियाँ शान्तिदायक हों। सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शान्तिदायक हों। ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शान्ति प्रदान करने वाले हों। उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शान्ति देने वाले हों। सम्पूर्ण चराचर जगत शान्ति पूर्ण हों अर्थात सब जगह शान्ति ही शान्ति हो। ऐसी शान्ति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढ़ती ही रहे। अभिप्राय यह है कि सृष्टि का कण-कण हमें शान्ति प्रदान करने वाला हो। समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो।
शान्ति पाठ :: किसी भी प्रकार के शुभ कार्य को करते हुए शान्ति पाठ अवश्य करें :-
ॐ आनोभद्रा: क्रतवो यन्तु विस्वतो दब्धासो अपरीतास उद्भिद:।
देवानो यथा सदमिद वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
देवानां भद्रा सुमतिर्रिजुयताम देवाना ग्वंग रातिरभि नो निवार्ताताम।
देवानां ग्वंग सख्यमुपसेदिमा वयम देवान आयु: प्रतिरन्तु जीवसे॥
तान पूर्वया निविदा हूमहे वयम भगं मित्र मदितिम दक्षमस्रिधम।
अर्यमणं वरुण ग्वंग सोममस्विना सरस्वती न: सुभगा मयस्करत॥
तन्नोवातो मयोभूवातु भेषजं तन्नमाता पृथिवी तत्पिता द्यौ:।
तद्ग्रावान: सोमसुतो मयोभूवस्तदस्विना श्रुनुतं धिष्ण्या युवं॥
तमीशानं जगतस्तस्थुखसपतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम।
पूषा नो यथा वेद सामसद वृधे रक्षिता पायुरदब्ध: स्वस्तये॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा: स्वस्ति न पूषा विस्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो वृहस्पति दधातु॥
पृषदश्वा मरुत: प्रिश्निमातर: शुभं यावानो विदथेषु जग्मय:।
अग्निजिह्वा मनव: सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥
भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा ग्वंग सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायु:॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मानो मध्या रीरिषतायुर्गन्तो:॥
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्ष्मदितिर्माता स पिता स पुत्र:।
विश्वेदेवा अदिति: पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष् ग्वंग शान्ति: पृथिवी शान्ति राप: शान्ति रोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्व ग्वंग शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सामा शान्तिरेधि॥
यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शं न: कुरु प्रजाभ्यो भयं न: पशुभ्य:॥
सुशान्तिर्भवतु।
श्री मन्महागणाधिपतये नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:। उमामहेश्वराभ्यां नम:।
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नं:। शचिपुरन्दराभ्यां नम:। इष्टदेवताभ्यो नम:। कुलदेवताभ्यो नम:।ग्रामदेवताभ्यो नम:। वास्तुदेवताभ्यो नम:। स्थानदेवताभ्यो नम:। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:।सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:। ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय श्री मन्महागणाधिपतये नम:
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