श्री राम चरित मानस बालकाण्ड दोहा संख्या 281 से दोहा संख्या 320 तक


दोहा :

*प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।

बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥

भावार्थ:-स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिए। आपका (वीरों का सा) वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है॥281॥

 

चौपाई :

*देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥

नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥1॥

भावार्थ:-आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश (रघुवंश) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया॥1॥

 

*जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥

छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥2॥

भावार्थ:-यदि आप मुनि की तरह आते, तो हे स्वामी! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए॥2॥

 

*हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥

राम मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥3॥

भावार्थ:-हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम॥3॥

 

*देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥4॥

भावार्थ:-हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए॥4॥

 

दोहा :

*बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।

बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधू सम बाम॥282॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा। तब भृगुपति (परशुरामजी) कुपित होकर (अथवा क्रोध की हँसी हँसकर) बोले- तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है॥282॥

 

*निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥

चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥

भावार्थ:-तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान॥1॥

 

*समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥

मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥

भावार्थ:-चतुरंगिणी सेना सुंदर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किए हैं (अर्थात जैसे मंत्रोच्चारण पूर्वक 'स्वाहा' शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)॥2॥

 

*मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥

भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥3॥

भावार्थ:-मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है॥3॥

 

*राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥

छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥4॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?॥4॥

 

दोहा :

*जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।

तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥

भावार्थ:-हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिए, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है, जिसे हम डरके मारे मस्तक नवाएँ?॥283॥

 

चौपाई :

*देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥

जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥1॥

भावार्थ:-देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान हों, यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो॥1॥

 

*छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥

कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥2॥

भावार्थ:-क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा दिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते॥2॥

 

*बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥

सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के॥3॥

भावार्थ:-ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है, वह भी आपसे डरता है) श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए॥3॥

 

*राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥

देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥4॥

भावार्थ:-(परशुरामजी ने कहा-) हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में (अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष) लीजिए और इसे खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ॥4॥

 

दोहा :

*जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।

जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥284॥

भावार्थ:-तब उन्होंने श्री रामजी का प्रभाव जाना, (जिसके कारण) उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में समाता न था-॥284॥

 

चौपाई :

*जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥

जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥

भावार्थ:-हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो॥1॥

 

*बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥

सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥2॥

भावार्थ:-हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले! आपकी जय हो॥2॥

 

*करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥

अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥3॥

भावार्थ:-मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए॥3॥

 

*कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥

अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥

भावार्थ:-हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥4॥

 

दोहा :

*देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।

हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285॥

भावार्थ:-देवताओं ने नगाड़े बजाए, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए। उनका मोहमय (अज्ञान से उत्पन्न) शूल मिट गया॥285॥

 

चौपाई :

*अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥

जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥1॥

भावार्थ:-खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली तथा कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर सुंदरगान करने लगीं॥1॥

 

*सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥

बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥2॥

भावार्थ:-जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा, वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है॥2॥

 

*जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥

मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥3॥

भावार्थ:-जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया (और कहा-) प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिए॥3॥

 

*कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥

टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥4॥

भावार्थ:-मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है॥4॥

 

दशरथजी के पास जनकजी का दूत भेजना, अयोध्या से बारात का प्रस्थान

दोहा :

*तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।

बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥

भावार्थ:-तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो॥286॥

 

चौपाई :

*दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥

मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥1॥

भावार्थ:-जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया॥1॥

 

*बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥

हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥2॥

भावार्थ:-फिर सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया। (राजा ने कहा-) बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाओ॥2॥

 

*हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥

रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥3॥

भावार्थ:-महाजन प्रसन्न होकर चले और अपने-अपने घर आए। फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा (और उन्हें आज्ञा दी कि) विचित्र मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजा के वचन सिर पर धरकर और सुख पाकर चले॥3॥

 

*पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥

बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥4॥

भावार्थ:-उन्होंने अनेक कारीगरों को बुला भेजा, जो मंडप बनाने में कुशल और चतुर थे। उन्होंने ब्रह्मा की वंदना करके कार्य आरंभ किया और (पहले) सोने के केले के खंभे बनाए॥4॥

 

दोहा :

*हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।

रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥287॥

भावार्थ:-हरी-हरी मणियों (पन्ने) के पत्ते और फल बनाए तथा पद्मराग मणियों (माणिक) के फूल बनाए। मंडप की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया॥287॥

 

चौपाई :

*बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥

कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥1॥

भावार्थ:-बाँस सब हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाए जो पहचाने नहीं जाते थे (कि मणियों के हैं या साधारण)। सोने की सुंदर नागबेली (पान की लता) बनाई, जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी॥1॥

 

*तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए॥

मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥2॥

भावार्थ:-उसी नागबेली के रचकर और पच्चीकारी करके बंधन (बाँधने की रस्सी) बनाए। बीच-बीच में मोतियों की सुंदर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और ‍िफरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके (लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रंग के) कमल बनाए॥2॥

 

*किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥

सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं॥3॥

भावार्थ:-भौंरे और बहुत रंगों के पक्षी बनाए, जो हवा के सहारे गूँजते और कूजते थे। खंभों पर देवताओं की मूर्तियाँ गढ़कर निकालीं, जो सब मंगल द्रव्य लिए खड़ी थीं॥3॥

 

*चौकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाईं॥4॥

भावार्थ:-गजमुक्ताओं के सहज ही सुहावने अनेकों तरह के चौक पुराए॥4॥

 

दोहा :

*सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।

हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥

भावार्थ:-नील मणि को कोरकर अत्यन्त सुंदर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रेशम की डोरी से बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं॥288॥

 

चौपाई :

*रचे रुचिर बर बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥

मंगल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥

भावार्थ:-ऐसे सुंदर और उत्तम बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए हों। अनेकों मंगल कलश और सुंदर ध्वजा, पताका, परदे और चँवर बनाए॥1॥

 

*दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥

जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥2॥

भावार्थ:-जिसमें मणियों के अनेकों सुंदर दीपक हैं, उस विचित्र मंडप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता, जिस मंडप में श्री जानकीजी दुलहिन होंगी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके॥2॥

 

*दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥

जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥3॥

भावार्थ:-जिस मंडप में रूप और गुणों के समुद्र श्री रामचन्द्रजी दूल्हे होंगे, वह मंडप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए। जनकजी के महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखाई देती है॥3॥

 

*जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥

जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥

भावार्थ:-उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था॥4॥

 

दोहा :

*बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।

तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289॥

भावार्थ:-जिस नगर में साक्षात्‌ लक्ष्मीजी कपट से स्त्री का सुंदर वेष बनाकर बसती हैं, उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं॥289॥

 

चौपाई :

*पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥

भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥1॥

भावार्थ:-जनकजी के दूत श्री रामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुंदर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वार पर जाकर उन्होंने खबर भेजी, राजा दशरथजी ने सुनकर उन्हें बुला लिया॥1॥

 

*करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥

बारि बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥2॥

भावार्थ:-दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनंद के आँसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई॥2॥

 

*रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥

पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥3॥

भावार्थ:-हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुंदर चिट्ठी है, राजा उसे हाथ में लिए ही रह गए, खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गई॥3॥

 

*खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥

पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥4॥

भावार्थ:-भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गए। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं- पिताजी! चिट्ठी कहाँ से आई है?॥4॥

 

दोहा :

*कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।

सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥

भावार्थ:-हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिए सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढ़ी॥290॥

 

चौपाई :

*सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिन सनेहु समात न गाता॥

प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥1॥

भावार्थ:-चिट्ठी सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गए। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया॥1॥

 

*तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥

भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥2॥

भावार्थ:-तब राजा दूतों को पास बैठाकर मन को हरने वाले मीठे वचन बाले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आँखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है न?॥2॥

 

*स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥

पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥3॥

भावार्थ:-साँवले और गोरे शरीर वाले वे धनुष और तरकस धारण किए रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस प्रकार कह (पूछ) रहे हैं॥3॥

 

*जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥

कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥4॥

भावार्थ:-(भैया!) जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तब से आज ही हमने सच्ची खबर पाई है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेम भरे) वचन सुनकर दूत मुस्कुराए॥4॥

 

दोहा :

*सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।

रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥

भावार्थ:-(दूतों ने कहा-) हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिए, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं॥291॥

 

चौपाई :

*पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥

जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥1॥

भावार्थ:-आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाश स्वरूप हैं। जिनके यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है॥1॥

 

*तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥

सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥2॥

भावार्थ:-हे नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक से एक बढ़कर योद्धा एकत्र हुए थे॥2॥

 

*संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥

तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥3॥

भावार्थ:-परंतु शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान वीर हार गए। तीनों लोकों में जो वीरता के अभिमानी थे, शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी॥3॥

 

*सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥

जेहिं कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥4॥

भावार्थ:-बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ॥4॥

 

दोहा :

*तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।

भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥292॥

भावार्थ:-हे महाराज! सुनिए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है!॥292॥

 

चौपाई :

*सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥

देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥

भावार्थ:-धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं। अंत में उन्होंने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया॥1॥

 

*राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥

कंपहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥2॥

भावार्थ:-हे राजन्‌! जैसे श्री रामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेज निधान फिर लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजा लोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं॥2॥

 

*देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥

दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥3॥

भावार्थ:-हे देव! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं)। प्रेम, प्रताप और वीर रस में पगी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत प्रिय लगी॥3॥

 

*सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥

कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥4॥

भावार्थ:-सभा सहित राजा प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे। (उन्हें निछावर देते देखकर) यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। धर्म को विचारकर (उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभी ने सुख माना॥4॥

 

दोहा :

*तब उठि भूप बसिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिका जाई।

कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥293॥

भावार्थ:-तब राजा ने उठकर वशिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी॥293॥

 

चौपाई :

*सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥

भावार्थ:-सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती॥1॥

 

*तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥

तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥2॥

भावार्थ:-वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाए स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती है। तुम जैसे गुरु, ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करने वाले हो, वैसी ही पवित्र कौसल्यादेवी भी हैं॥2॥

 

*सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥

तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥3॥

भावार्थ:-तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न होने का ही है। हे राजन्‌! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम सरीखे पुत्र हैं॥3॥

 

*बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥

तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥4॥

भावार्थ:-और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करने वाले और गुणों के सुंदर समुद्र हैं। तुम्हारे लिए सभी कालों में कल्याण है। अतएव डंका बजवाकर बारात सजाओ॥4॥

 

दोहा :

*चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।

भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥

भावार्थ:-और जल्दी चलो। गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ! बहुत अच्छा कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गए॥294॥

 

चौपाई :

*राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥

सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥

भावार्थ:-राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन किया॥1॥

 

*प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥

मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥2॥

भावार्थ:-प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बड़ी-बूढ़ी (अथवा गुरुओं की) स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ अत्यन्त आनंद में मग्न हैं॥2॥

 

*लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुड़ावहिं छाती॥

राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥3॥

भावार्थ:-उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं। राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्री राम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारंबार वर्णन किया॥3॥

 

*मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥

दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥4॥

भावार्थ:-'यह सब मुनि की कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आए। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनंद सहित उन्हें दान दिए। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले॥4॥

 

सोरठा :

*जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।

चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥

भावार्थ:-फिर भिक्षुकों को बुलाकर करोड़ों प्रकार की निछावरें उनको दीं। 'चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों'॥295॥

 

चौपाई :

*कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥

समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥

भावार्थ:-यों कहते हुए वे अनेक प्रकार के सुंदर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनंदित होकर नगाड़े वालों ने बड़े जोर से नगाड़ों पर चोट लगाई। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने लगे॥1॥

 

*भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥

सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥2॥

भावार्थ:-चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे॥2॥

 

*जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मंगलमय पावनि॥

तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥3॥

भावार्थ:-यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योंकि वह श्री रामजी की मंगलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति पर प्रीति होने से वह सुंदर मंगल रचना से सजाई गई॥3॥

 

*ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥

कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥4॥

भावार्थ:-ध्वजा, पताका, परदे और सुंदर चँवरों से सारा बाजा बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हलदी, दूब, दही, अक्षत और मालाओं से-॥4॥

 

दोहा :

*मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।

बीथीं सींचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥

भावार्थ:-लोगों ने अपने-अपने घरों को सजाकर मंगलमय बना लिया। गलियों को चतुर सम से सींचा और (द्वारों पर) सुंदर चौक पुराए। (चंदन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने हुए एक सुगंधित द्रव को चतुरसम कहते हैं)॥296॥

 

चौपाई :

*जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥

बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥1॥

भावार्थ:-बिजली की सी कांति वाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के से नेत्र वाली और अपने सुंदर रूप से कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुड़ाने वाली सुहागिनी स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ-तहाँ झुंड की झुंड मिलकर,॥1॥

 

*गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कल रव कलकंठि लजानीं॥

भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥2॥

भावार्थ:-मनोहर वाणी से मंगल गीत गा रही हैं, जिनके सुंदर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णन कैसे किया जाए, जहाँ विश्व को विमोहित करने वाला मंडप बनाया गया है॥2॥

 

*मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥

कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥3॥

भावार्थ:-अनेकों प्रकार के मनोहर मांगलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत से नगाड़े बज रहे हैं। कहीं भाट विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं॥3॥

 

*गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥

बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥4॥

भावार्थ:-सुंदरी स्त्रियाँ श्री रामजी और श्री सीताजी का नाम ले-लेकर मंगलगीत गा रही हैं। उत्साह बहुत है और महल अत्यन्त ही छोटा है। इससे (उसमें न समाकर) मानो वह उत्साह (आनंद) चारों ओर उमड़ चला है॥4॥

 

दोहा :

*सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।

जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥

भावार्थ:-दशरथ के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है॥297॥

 

चौपाई :

*भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गयस्यंदन साजहु जाई॥

चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥1॥

भावार्थ:-फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनंदवश पुलक से भर गए॥1॥

 

*भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥

रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥2॥

भावार्थ:-भरतजी ने सब साहनी (घुड़साल के अध्यक्ष) बुलाए और उन्हें (घोड़ों को सजाने की) आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौड़े। उन्होंने रुचि के साथ (यथायोग्य) जीनें कसकर घोड़े सजाए। रंग-रंग के उत्तम घोड़े शोभित हो गए॥2॥

 

*सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥

नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥3॥

भावार्थ:-सब घोड़े बड़े ही सुंदर और चंचल करनी (चाल) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखते हों। अनेकों जाति के घोड़े हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। (ऐसी तेज चाल के हैं) मानो हवा का निरादर करके उड़ना चाहते हैं॥3॥

 

*तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥

सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥4॥

भावार्थ:-उन सब घोड़ों पर भरतजी के समान अवस्था वाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुंदर हैं और सब आभूषण धारण किए हुए हैं। उनके हाथों में बाण और धनुष हैं तथा कमर में भारी तरकस बँधे हैं॥4॥

 

दोहा :

*छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।

जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥

भावार्थ:-सभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलाने की कला में बड़े निपुण हैं॥298॥

 

चौपाई :

*बाँधें बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥

फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥1॥

भावार्थ:-शूरता का बाना धारण किए हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोड़ों को तरह-तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी तथा नगाड़े की आवाज सुन-सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं॥1॥

 

*रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥

चवँर चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं॥2॥

भावार्थ:-सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है। उनमें सुंदर चँवर लगे हैं और घंटियाँ सुंदर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुंदर हैं, मानो सूर्य के रथ की शोभा को छीने लेते हैं॥2॥

 

*सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥

सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥3॥

भावार्थ:-अगणित श्यामवर्ण घोड़े थे। उनको सारथियों ने उन रथों में जोत दिया है, जो सभी देखने में सुंदर और गहनों से सजाए हुए सुशोभित हैं और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं॥3॥

 

*जे जल चलहिं थलहि की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाईं॥

अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥4॥

भावार्थ:-जो जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। वेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र-शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया॥4॥

 

दोहा :

*चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।

होत सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥

भावार्थ:-रथों पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो जिस काम के लिए जाता है, सभी को सुंदर शकुन होते हैं॥299॥

 

चौपाई :

*कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥

चले मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥1।

भावार्थ:-श्रेष्ठ हाथियों पर सुंदर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजाई गई थीं, सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटों से सुशोभित होकर (घंटे बजाते हुए) चले, मानो सावन के सुंदर बादलों के समूह (गरते हुए) जा रहे हों॥

 

*बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥

तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृंदा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥2॥

भावार्थ:-सुंदर पालकियाँ, सुख से बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उन पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर चले, मानो सब वेदों के छन्द ही शरीर धारण किए हुए हों॥2॥

 

*मागध सूत बंधि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥

बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥3॥

भावार्थ:-मागध, सूत, भाट और गुण गाने वाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहुत जातियों के खच्चर, ऊँट और बैल असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ लाद-लादकर चले॥3॥

 

*कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥

चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥4॥

भावार्थ:-कहार करोड़ों काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकार की इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन कौन कर सकता है। सब सेवकों के समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले॥4॥

 

दोहा :

*सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।

कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥300॥

भावार्थ:-सबके हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलक से भरे हैं। (सबको एक ही लालसा लगी है कि) हम श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे॥300॥

 

चौपाई :

*गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥

निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥1॥

भावार्थ:-हाथी गरज रहे हैं, उनके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोड़ों की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाड़े घोर शब्द कर रहे हैं। किसी को अपनी-पराई कोई बात कानों से सुनाई नहीं देती॥1॥

 

*महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिएँ आरती मंगल थारीं॥2॥

भावार्थ:-राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाए तो वह भी पिसकर धूल हो जाए। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल थालों में आरती लिए देख रही हैं॥2॥

 

*गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना॥

तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥3॥

भावार्थ:-और नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनंद का बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोड़ों को भी मात करने वाले घोड़े जोते॥3॥

 

*दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥

राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥4॥

भावार्थ:-दोनों सुंदर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, जिनकी सुंदरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो तेज का पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था,॥4॥

 

दोहा :

*तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाई नरेसु।

आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥301॥

भावार्थ:-उस सुंदर रथ पर राजा वशिष्ठजी को हर्ष पूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजी का स्मरण करके (दूसरे) रथ पर चढ़े॥301॥

 

चौपाई :

*सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥

करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥1॥

भावार्थ:-वशिष्ठजी के साथ (जाते हुए) राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देव गुरु बृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वेद की विधि से और कुल की रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर,॥1॥

 

*सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥

हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥2॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे॥2॥

 

*भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥

सुर नर नारि सुमंगल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाईं॥3॥

भावार्थ:-बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बारात में (दोनों जगह) बाजे बजने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुंदर मंगलगान करने लगीं और रसीले राग से शहनाइयाँ बजने लगीं॥3॥

 

*घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥

करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना॥4॥

भावार्थ:-घंटे-घंटियों की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलने वाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत के खेल कर रहे हैं और फहरा रहे हैं (आकाश में ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं।) हँसी करने में निपुण और सुंदर गाने में चतुर विदूषक (मसखरे) तरह-तरह के तमाशे कर रहे हैं॥4॥

 

दोहा :

*तुरग नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदंग निसान।

नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥302॥

भावार्थ:-सुंदर राजकुमार मृदंग और नगाड़े के शब्द सुनकर घोड़ों को उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा रहे हैं कि वे ताल के बंधान से जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख रहे हैं॥302॥

 

चौपाई :

*बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥

चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥1॥

भावार्थ:-बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो॥।1॥

 

*दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥

सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥2॥

भावार्थ:-दाहिनी ओर कौआ सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं॥2॥

 

*लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥

मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥3॥

भावार्थ:-लोमड़ी फिर-फिरकर (बार-बार) दिखाई दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली (बाईं ओर से) घूमकर दाहिनी ओर को आई, मानो सभी मंगलों का समूह दिखाई दिया॥3॥

 

*छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥

सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥4॥

भावार्थ:-क्षेमकरी (सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए॥4॥

 

दोहा :

*मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।

जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥303॥

भावार्थ:-सभी मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक ही साथ हो गए॥303॥

 

चौपाई :

*मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥

राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥1॥

भावार्थ:-स्वयं सगुण ब्रह्म जिसके सुंदर पुत्र हैं, उसके लिए सब मंगल शकुन सुलभ हैं। जहाँ श्री रामचन्द्रजी सरीखे दूल्हा और सीताजी जैसी दुलहिन हैं तथा दशरथजी और जनकजी जैसे पवित्र समधी हैं,॥1॥

 

*सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥

एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥2॥

भावार्थ:-ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे (और कहने लगे-) अब ब्रह्माजी ने हमको सच्चा कर दिया। इस तरह बारात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ों पर चोट लग रही है॥2॥

 

*आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥

बीच-बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥3॥

भावार्थ:-सूर्यवंश के पताका स्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिए। बीच-बीच में ठहरने के लिए सुंदर घर (पड़ाव) बनवा दिए, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छाई है,॥3॥

 

*असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥

नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥4॥

भावार्थ:-और जहाँ बारात के सब लोग अपने-अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नए सुखों को देखकर सभी बारातियों को अपने घर भूल गए॥4॥

 

दोहा :

*आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।

सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥304॥

भावार्थ:-बड़े जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करने वाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥304॥

मासपारायण दसवाँ विश्राम

 

बारात का जनकपुर में आना और स्वागतादि

चौपाई :

*कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥

भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥

भावार्थ:-(दूध, शर्बत, ठंडाई, जल आदि से) भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुंदर बर्तन,॥1॥

 

*फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥

भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥

भावार्थ:-उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुंदर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिए भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ (रत्न), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ,॥2॥

 

*मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥

दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥

भावार्थ:-तथा बहुत प्रकार के सुगंधित एवं सुहावने मंगल द्रव्य और शगुन के पदार्थ राजा ने भेजे। दही, चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर-भरकर कहार चले॥3॥

 

*अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता॥

देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥

भावार्थ:-अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए॥4॥

 

दोहा :

*हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।

जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥

भावार्थ:-(बाराती तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥305॥

 

चौपाई :

*बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥

बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥

भावार्थ:-देवसुंदरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। (अगवानी में आए हुए) उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की॥1॥

 

*प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥

करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥

भावार्थ:-राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले॥2॥

 

*बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥

अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥

भावार्थ:-विलक्षण वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुंदर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकार का सुभीता था॥3॥

 

*जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥

हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥

भावार्थ:-सीताजी ने बारात जनकपुर में आई जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलाई। हृदय में स्मरणकर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिए भेजा॥4॥

 

दोहा :

*सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।

लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥

भावार्थ:-सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इंद्रपुरी के भोग-विलास को लिए हुए गईं॥306॥

 

चौपाई :

*निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥

बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥

भावार्थ:-बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं॥1॥

 

*सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥

पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥2॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता न था॥2॥

 

*सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥

बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥3॥

भावार्थ:-संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे, परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत संतोष उत्पन्न हुआ॥3॥

 

*हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥

चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥

भावार्थ:-प्रसन्न होकर उन्होंने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो॥4॥

 

दोहा :

*भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।

उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥

भावार्थ:-जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले॥307॥

 

चौपाई :

*मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥

कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥

भावार्थ:-पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत्‌ प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी॥1॥

 

*पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥

सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥2॥

भावार्थ:-फिर दोनों भाइयों को दण्डवत्‌ प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होंने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥2॥

 

*पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥

बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥

भावार्थ:-फिर उन्होंने वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ ने प्रेम के आनंद में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वंदना की और मनभाए आशीर्वाद पाए॥3॥

 

*भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥

हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥

भावार्थ:-भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले॥4॥

 

दोहा :

*पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।

मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥

भावार्थ:-तदन्तर परम कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मंत्रियों और मित्रों सभी से यथा योग्य मिले॥308॥

 

*रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥

नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई (राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शांत हो गई)। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं, मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किए हुए हों॥1॥

 

चौपाई :

*सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥

सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥

भावार्थ:-पुत्रों सहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। (आकाश में) देवता फूलों की वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही हैं॥2॥

 

*सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥

सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥

भावार्थ:-अगवानी में आए हुए शतानंदजी, अन्य ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बारात सहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥3॥

 

*प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥

ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥

भावार्थ:-बारात लग्न के दिन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर में अधिक आनंद छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानंद प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जाएँ (बड़े हो जाएँ)॥4॥

 

*रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।

जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुंदरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषों के समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे हैं॥309॥

 

चौपाई :

*जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥

इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥

भावार्थ:-जनकजी के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री रामजी हैं। इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए॥1॥

 

*इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥

हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥

भावार्थ:-इनके समान जगत में न कोई हुआ, न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए,॥2॥

 

*जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥

पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥

भावार्थ:-और जिन्होंने जानकीजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रों का लाभ लेंगे॥3॥

 

*कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥

बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥

भावार्थ:-कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुंदर नेत्रों वाली! इस विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे॥4॥

 

दोहा :

*बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।

लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥

भावार्थ:-जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेंगे और करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर दोनों भाई सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेंगे॥310॥

 

चौपाई :

*बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥

तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥

भावार्थ:-तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होंगे॥1॥

 

*सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग हुइ ढोटा॥

स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥

भावार्थ:-हे सखी! जैसा श्री राम-लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुंदर हैं। जो लोग उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं॥2॥

 

*कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥

भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥

भावार्थ:-एक ने कहा- मैंने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुंदर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥3॥

 

*लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥

मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥

भावार्थ:-लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है॥4॥

 

छन्द :

*उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।

बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥

पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥

ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥

भावार्थ:-दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुंदर मंगल गावें।

 

सोरठा :

*कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।

सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥

भावार्थ:-नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि हे सखी! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं, त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे॥311॥

 

चौपाई :

*एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥

जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥

भावार्थ:-इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमंग-उमंगकर (उत्साहपूर्वक) आनंद से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया॥1॥

 

*कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥

गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का निर्मल और महान यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। जनकपुर निवासी और बाराती सभी बड़े आनंदित हैं॥2॥

 

*मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥

ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥

भावार्थ:-मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया,॥3॥

 

*पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥

सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥

भावार्थ:-और उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥4॥

 

दोहा :

*धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।

बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥

भावार्थ:-निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥

 

चौपाई :

*उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥

सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥

भावार्थ:-तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आए॥1॥

 

*संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥

सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥

भावार्थ:-शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुंदर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥

 

*लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥

कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥

भावार्थ:-सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥

 

*भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥

गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥

भावार्थ:-(उन्होंने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥

 

दोहा :

*भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।

लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥

भावार्थ:-अवध नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥

 

चौपाई :

*सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥

सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥

भावार्थ:-देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े॥1॥

 

*प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥

देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥

भावार्थ:-और प्रेम से पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥

 

*चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।

नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥

भावार्थ:-विचित्र मंडप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भंडार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥3॥

 

*तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥

बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥

भावार्थ:-उन्हें देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥

 

दोहा :

*सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।

हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥

भावार्थ:-तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात्‌ भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥

 

चौपाई :

*जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥

करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥

भावार्थ:-जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी हैं, काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥

 

*एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥

देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥

भावार्थ:-इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नंदीश्वर को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं॥2॥

 

*साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥

सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥

भावार्थ:-उनके साथ (परम हर्षयुक्त) साधुओं और ब्राह्मणों की मंडली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुंदर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किए हुए हों॥3॥

*मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥

पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥

भावार्थ:-मरकतमणि और सुवर्ण के रंग की सुंदर जोड़ियों को देखकर देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई (अर्थात्‌ बहुत ही प्रीति हुई)। फिर रामचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में (अत्यन्त) हर्षित हुए और राजा की सराहना करके उन्होंने फूल बरसाए॥4॥

 

दोहा :

*राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।

पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥

भावार्थ:-नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र (प्रेमाश्रुओं के) जल से भर गए॥315॥

 

चौपाई :

*केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥

ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥1॥

भावार्थ:-रामजी का मोर के कंठ की सी कांतिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करने वाले प्रकाशमय सुंदर (पीत) रंग के वस्त्र हैं। सब मंगल रूप और सब प्रकार के सुंदर भाँति-भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाए हुए हैं॥1॥

 

*सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥

सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥

भावार्थ:-उनका सुंदर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमल को लजाने वाले हैं। सारी सुंदरता अलौकिक है। (माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कहीं नहीं जा सकती, मन ही मन बहुत प्रिय लगती है॥2॥

 

*बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।

राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥

भावार्थ:-साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों को (उनकी चाल को) दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करने वाले (मागध भाट) विरुदावली सुना रहे हैं॥3॥

 

*जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥

कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥

भावार्थ:-जिस घोड़े पर श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी (तेज) चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुंदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया हो॥4॥

 

छन्द :

*जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।

आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥

जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।

किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥

भावार्थ:-मानो श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुंदर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।

 

दोहा :

*प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।

भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥

भावार्थ:-प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो॥316॥

 

चौपाई :

*जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥

संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥1॥

भावार्थ:-जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥1॥

 

*हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥

निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥

भावार्थ:-भगवान विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे (रमणीयता की मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥

 

*सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥

रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥

भावार्थ:-देवताओं के सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुंदर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं॥3॥

 

*देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥

मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥

भावार्थ:-सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है॥4॥

 

छन्द :

*अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।

बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥

एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।

रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥

भावार्थ:-दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और 'रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मंगल द्रव्य सजाने लगीं॥

 

दोहा :

*सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।

चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥

भावार्थ:-अनेक प्रकार से आरती सजकर और समस्त मंगल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी की सी चाल वाली) उत्तम स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥

 

चौपाई :

*बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥

पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥

भावार्थ:-सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और सभी मृगलोचनी (हरिण की सी आँखों वाली) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुड़ाने वाली हैं। रंग-रंग की सुंदर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं॥1॥

 

*सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥

कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥

भावार्थ:-समस्त अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाए हुए वे कोयल को भी लजाती हुई (मधुर स्वर से) गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं॥2॥

 

*बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥

सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥

भावार्थ:-अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुंदर मंगलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ थीं,॥3॥

 

*कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥

करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥

भावार्थ:-वे सब कपट से सुंदर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने उन्हें पहचाना नहीं॥4॥

 

छन्द :

*को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।

कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥

आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।

अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥

भावार्थ:-कौन किसे जाने-पहिचाने! आनंद के वश हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनंदकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड़ आया और सुंदर अंगों में पुलकावली छा गई॥

 

दोहा :

*जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।

सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥

श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥

 

चौपाई :

*नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥

बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥

भावार्थ:-मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥

 

*पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥

करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥

भावार्थ:-पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने (रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया॥2॥

 

*दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥

समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥3॥

भावार्थ:-दशरथजी अपनी मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं॥3॥

 

*नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥

एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥

भावार्थ:-आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए॥4॥

 

छन्द :

*बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।

मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥

ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।

अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥

भावार्थ:-आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।

 

दोहा :

*नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।

मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥

भावार्थ:-नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥319॥

 

चौपाई :

*मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥

मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥

भावार्थ:-वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए॥1॥

 

*लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥

सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥

भावार्थ:-जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥

 

*जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥

सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥

भावार्थ:-(वे कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥3॥

 

*देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥

देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥

भावार्थ:-देवताओं की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आए॥4॥

 

छन्द :

*मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।

निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥

कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।

कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥

भावार्थ:-मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती॥

 

दोहा :

*बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥

दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥

भावार्थ:-राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥

 

चौपाई :

*बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥

कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥

भावार्थ:-फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके संबंध से) अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की॥1॥

 

*पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥

आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥

भावार्थ:-राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥

 

*सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥

बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥

भावार्थ:-राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥

 

*कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥

पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥

भावार्थ:-वे कपट से ब्राह्मणों का सुंदर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें सुंदर आसन दिए॥4॥

 

छन्द :

*पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।

आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥

सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।

अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥

भावार्थ:-कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है। आनंदकन्द दूलह को देखकर दोनों ओर आनंदमयी स्थिति हो रही है। सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं को पहिचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिए। प्रभु का शील-स्वभाव देखकर देवगण मन में बहुत आनंदित हुए।

 

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