पृथ्वी स्तोत्रम्

पृथ्वी स्तोत्रम 
विष्णुरुवाच -
यज्ञसूकरजाया त्वं जयं देहि जयावहे ।
जयेऽजये जयाधारे जयशीले जयप्रदे ॥ १॥

सर्वाधारे सर्वबीजे सर्वशक्तिसमन्विते ।
सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे भवे ॥ २॥

सर्वशस्यालये सर्वशस्याढ्ये सर्वशस्यदे ।
सर्वशस्यहरे काले सर्वशस्यात्मिके भवे ॥ ३॥

मङ्गले मङ्गलाधारे मङ्गल्ये मङ्गलप्रदे ।
मङ्गलार्थे मङ्गलेशे मङ्गलं देहि मे भवे ॥ ४॥

भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे ।
भूमिपाहङ्काररूपे भूमिं देहि च भूमिदे ॥ ५॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं तां सम्पूज्य च यः पठेत् ।
कोटिकोटि जन्मजन्म स भवेद् भूमिपेश्वरः ॥ ६॥

भूमिदानकृतं पुण्यं लभते पठनाज्जनः ।
भूमिदानहरात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७॥

भूमौ वीर्यत्यागपापाद् भूमौ दीपादिस्थापनात् ।
पापेन मुच्यते प्राज्ञः स्तोत्रस्य पाठनान्मुने ।
अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ८॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे विष्णुकृतं पृथ्वीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
हिन्दी भावार्थ -
भगवान् विष्णु बोले -- विजयकी प्राप्ति करानेवाली वसुधे !
मुझे विजय दो । तुम भगवान् यज्ञवराहकी पत्नी हो । जये! तुम्हारी
कभी पराजय नहीं होती है । तुम विजयका आधार, विजयशील और
विजयदायिनी हो ॥ १॥

देवि! तुम्हीं सबकी आधारभूमि हो । सर्वबीजस्वरूपिणी तथा सम्पूर्ण
शक्तियों से सम्पन्न हो । समस्त कामनाओं को देनेवाली देवि!  तुम इस
संसारमे मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु प्रदान करो ॥ २॥

तुम सब प्रकारके शस्यों का घर हो । सब तरह के शस्यों से
सम्पन्न हो । सभी शस्यों को देनेवाली हो तथा समयविशेषमें
समस्त शस्यों का अपहरण भी कर लेती हो । इस संसार में तुम
सर्वशस्यस्वरूपिणी हो ॥ ३॥

मङ्गलमयी देवि! तुम मंगलका आधार हो । मङ्गलके योग्य हो ।
मङ्गलदायिनी हो । मङ्गलमय पदार्थ तुम्हारे स्वरूप हैं ।
मंगलेश्वरि !  तुम जगत्मे मुझे मङ्गल प्रदान करो ॥ ४॥

भूमे !  तुम भूमिपालों का सर्वस्व हो, भूमिपालपरायण हो तथा
भूमिपालों के अहंकार का मूर्तरूप हो । भूमिदायिनी देवि ! मुझे
भूमि दो ॥ ५॥

नारद! यह स्तोत्र परम पवित्र है । जो पुरुष पृथ्वी का पूजन
करके इसका पाठ करता है, उसे अनेक जन्मों तक भूपाल --सम्राट्
होनेका  सौभाग्य प्राप्त होता है ॥ ६॥

इसे पढनेसे मनुष्य पृथ्वी के  दान से उत्पन्न पुण्यका अधिकारी बन
जाता है । पृथ्वी -दानके अपहरणसे जो पाप होता है, इस स्तोत्रका
पाठ करनेपर मनुष्य उससे छुटकारा पा जाता है,  इसमें संशय
नहीं है ॥ ७॥

मुने ! पृथ्वीपर वीर्य त्यागने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है,
उससे भी, बुद्धिमान् पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करने से मुक्त हो जाता
है और सौ अश्वमेधयज्ञोंके करनेका पुण्यफल प्राप्त करता है,
इसमें संशय नहीं है ॥ ८॥

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणके प्रकृतिखण्ड में
विष्णुकृत पृथ्वीस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।

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