अहंकार का #दुष्प्रभाव,राजा #नहुष के पतन की #कथा!

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अमरावती चिन्ता में डूबी थी। सभी राग-रंग अवसाद में बदल गए थे। इन्द्र कहाँ हैं? देवगण एवं महर्षियों को यह प्रश्न उलझन में डाले था। इन्द्र के न होने से पृथ्वी वनस्पति से रहित होने लगी थी, सदा जल से भरे रहने वाले सरोवर सूख गए थे। सारी प्रकृति आक्रान्त हो उठी थी, समूची पृथ्वी में अराजक उपद्रव छा गए थे। इन्द्र के अभाव में इनका निवारण कौन करे। पर इन्द्र तो कहीं दिखते ही न थे। वे त्रिशिरा एवं नमुचि की हत्या के कलंक से विक्षुब्ध होकर कहीं पलायन कर गए थे।

देवगणों ने उन्हें ढूंढ़ने की बहुतेरी कोशिश की, पर सफलता हाथ न लगी। देवों का जीवन इन्द्र के अभाव में अस्त-व्यस्त होने लगा। देवराज का पद खाली नहीं रखा जा सकता। इस सत्य से सभी सहमत थे, पर देवराज के पद पर किसी एक नाम पर सहमति नहीं हो पा रही थी। ‘क्यों न पृथ्वी लोक के चक्रवर्ती सम्राट राजर्षि नहुष को देवराज के पद पर अभिषित किया जाय? एक ऋषि ने अपना सुझाव दिया।’

‘वही जो परम प्रतापी नरेश होने के साथ मंत्रदृष्टा भी हैं। जिन्होंने अनेक सूक्तों की रचना की है। जो पृथ्वी के सबसे शक्तिवान शासक हैं, क्या वही मानवों में श्रेष्ठ नहुष?’

हाँ ...हाँ... वही, मैं उन्हीं के बारे में कह रहा हूँ॥

‘बस फिर तो समस्या का समाधान मिल गया। देवों से इतर मानव के इन्द्र बनने पर देवताओं में आपसी कटुता भी न पनपेगी। राजर्षि नहुष के पराक्रम के प्रभाव से असुरों की रही-सही शक्ति भी नष्ट हो जाएगी।’ देवगण एवं महर्षि दोनों ही इस प्रस्ताव पर एकमत से सहमत से हो गए। सभी ने सर्वसम्मति से देवर्षि नारद को नहुष के पास जाकर उन्हें इस पर सहमत कराने के लिए प्रतिष्ठनपुर भेज दिया।

देवर्षि ने नहुष की राजधानी पहुँचकर उनसे निवेदन किया, हे राजन्! इन्द्र के अदृश्य हो जाने से अमरावती अवसाद में डूबी है, आप स्वर्ग चलकर देवराज इन्द्र का पद सम्भालें। देवर्षि का यह प्रस्ताव सुनकर राजा नहुष को पहले तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह एकबारगी अचकचा गए। उन्हें सूझ ही नहीं पड़ा कि वे क्या कहें- क्या जवाब दें?

देवर्षि नारद और उनके साथ पधारे ऋषिगणों ने फिर से एकबार निवेदन किया, हे सम्राट, समस्त देवों ने प्रसन्नतापूर्वक आपको देवराज मानते हुए स्वर्गलोक लाने की प्रार्थना की है। बिना किसी हिचकिचाहट के आप चलें और स्वर्ग के अधिपति का पद सम्भालें। सभी ऋषिगण आपको अपने तप का एक बड़ा भाग देंगे, जिससे आपकी तेजस्विता इतनी प्रखर होगी कि कोई भी आपके सामने टिक न सकेगा।

अभी तक प्रजापालन एवं तप-साधना में निरत नहुष अनायास ही इस परम दुर्लभ पद का प्रस्ताव पाकर प्रसन्न हो उठे। वे सोचने लगे कि अभी तक केवल सुना था कि तप से सभी कामनाओं की प्राप्ति होती है, लेकिन यह तो सचमुच ही सच हो गया। बिना माँगे ही इन्द्र का पद अपने आप ही चलकर मेरे पास आ गया। सचमुच ही तप की महिमा अपार है। मन ही मन अपनी कल्पनाओं का ताना-बाना बुनते हुए नहुष ने प्रकट में देवर्षि के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। ऋषियों के आग्रह पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी।

अमरावती भी नहुष के आगमन पर प्रसन्नता से छलक उठी। सम्राट नहुष का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था। वह पराक्रमी योद्धा, न्यायशील शासक, महान् मनीषी, दया धर्म के आगार सभी कुछ एक साथ थे। सभी देवों, ऋषियों ने उनके इन्हीं गुणों का सम्मान करते हुए उन्हें इन्द्र पद पर अभिषिक्त किया।

इन्द्र के लुप्त होने की वार्ता समय के साथ धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन होने लगी। देवगणों सहित अमरावती फिर से राग-रंग से तरंगित होने लगी। वहाँ फिर से हास-विलास और आमोद-प्रमोद की गूँज उठने लगी। नहुष के कुशल शासन में स्वर्ग के भोग फिर से चरम पर जा पहुँचे।

नहुष पराक्रमी थे, नीतिकुशल एवं तपस्वी थे, पर तत्त्ववेत्ता ब्रह्मज्ञानी नहीं थे। तत्त्वज्ञान के अभाव में स्वर्ग के सुख-वैभव के बीच उनका तप मन्द पड़ता गया, तप की ऊर्जा के अभाव में नीति परायणता केवल कुशलता के कौशल तक सिमट गयी। असुरों के आक्रमण शान्त थे, इसलिए पराक्रम की धार भी अब तेज न रही। भोग और वैभव से भरे-पूरे स्वर्ग में केवल वासना की ज्वालाएँ धधकी। कभी महान् तपस्वी एवं राजर्षि कहे जाने वाले नहुष अब केवल एक विलासी सम्राट हो गए।

वह कभी देवोद्यानों में, कभी नन्दन कानन में, कभी हिमालय शिखर पर, कभी मन्दराचल, कभी महेन्द्र और कभी मलय पर्वत, कभी समुद्र तो कभी सरिता में अप्सराओं और देवाँगनाओं से घिरे रहते, उनके साथ अनेकों काम, क्रीड़ाओं में रमे रहते। नाना वाद्यों और सुमधुर गीतों के श्रवण से उनकी हृदयतंत्री निनादित रहती। देवराज के महिमामय पद पर अधिष्ठित उन नहुष की आनन्द-विलास की लीलाओं में स्वयं विश्वावसु, गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदाय अभ्यर्थना के लिए उपस्थित रहते थे। ऋतुओं का शृंगार मानो देह धारण कर वहाँ छाया रहता था। स्वर्ग सुख की उद्दाम आनन्द लहरियों में डूबते-उतराते नहुष यदा-कदा सोचते, उन्हें सचमुच ही तप का सुफल मिल रहा है। विलास मलिन उनकी धुँधली दृष्टि यह नहीं देख पा रही थी कि यह तप का सुफल नहीं तप से पतन है। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इस लगातार के पतन से उनका पूर्व अर्जित तप अब चुक चला है, और अब वे दुर्गति के द्वार पर खड़े हैं।

पर यह सब वे देख पाने में असमर्थ थे। उन्हें तो केवल इन्द्र की पत्नी शची नजर आ रही थी, जो इस समय अपने प्रासाद के बाह्य परिसर में विश्राम कर रही थी। इस सोती सुन्दरी को देखकर उनके मन में वासना के सौ-सौ सर्प फुँफकार उठे। कामासक्त उनके मन-प्राण शची को पाने के लिए विचलित हो उठे। वासना ने नहुष के विवेक को हर लिया। ऐसे विवेकहीन विलासी स्वर्गाधिपति ने शची को अपनी पत्नी बनने के लिए आमंत्रण भेजा।

शची इन्द्र के वियोग में वैसे भी विरह पीड़ित और दुःखी थी। नहुष की इन बातों से वह और अधिक घबरा गयी। बेचारी आँसू बहाती हुई देवगुरु बृहस्पति के पास भागी आयी।

देवी शची को अपने आश्रम में देखकर देवगुरु एक पल के लिए चौंके। पर दूसरे ही पल उन्होंने दिव्य दृष्टि से सब कुछ जान लिया। उन्होंने देख लिया कि कभी महान् तपस्वी एवं पराक्रमी शासक रहा नहुष अब अपने जीवन पथ से भटक चुका है। फिर भी अभी वह महर्षियों द्वारा दिए गए तप के तेज से सुरक्षित है। अपने द्वारा दिए गए तप के तेज को ये महर्षि ही वापस ले सकते हैं। महर्षियों द्वारा स्थापित नहुष उन्हीं परम तेजस्वी दिव्यात्माओं द्वारा ही हटाया जा सकता है।

सारी परिस्थिति का आँकलन-विश्लेषण करके देवगुरु बृहस्पति कुछ पलों के लिए उपाय-समाधान की खोज में विचारमग्न हो गए। कुछ क्षणों बाद उनके चेहरे पर प्रसन्नता का प्रकाश उभरा। उनके होठों पर स्मित की हल्की सी रेखा झलकी। अब उन्होंने हल्के स्वरों में देवी शची से कुछ कहा। इसे सुनकर इन्द्राणी शची पहले तो घबराई, पर देवगुरु बृहस्पति के समझाने से वह मान गयी। उन्हें बृहस्पति-नीति पर विश्वास था। इसके अनेकों चमत्कार वह पहले भी देख चुकी थी।

अमरावती के हित के लिए, देवी शची अपनी और सभी देवगणों की कार्य-सिद्धि के लिए अपना हृदय कठोर बनाकर विलासी नहुष के समीप गयीं। सलज्ज गरिमाभरी उस महादेवी ने अपने मन की भावनाएँ मुख पर लेशमात्र भी प्रकट न होने दीं।

शची को अपने समीप आया हुआ देखकर नहुष आशा और उत्कण्ठा से भर गया। विस्मय भरे स्वर में वह बोला, ‘हे सुन्दरी मुझे स्वीकार करते समय, तुम्हारा जो भी कार्य होगा, उसे मैं सिद्ध करूंगा। तुम्हारा प्रिय करने के लिए मैं तत्पर हूँ। नहुष के इन वचनों से संकुचित शची ने जैसे-तैसे अपने को सम्हालते हुए कहा, जगत्पते, आप मुझे हर तरह से स्वीकार हैं। लेकिन आपको अपने पति के रूप में स्वीकार करने से पूर्व मेरी एक कामना है।

कहो-कहो शीघ्र ही कहो, मैं इसे पूर्ण करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करूंगा।’ नहुष के ये वचन उसके तप एवं पुण्य समाप्त हो जाने की घोषणा कर रहे थे।

इन्द्राणी कहने लगीं, ‘देवेश्वर! सभी सप्तर्षि एकत्र होकर शिविका द्वारा आपको वहन करके लाएँ, बस यही मेरी प्रिय कामना है।’ विवेकहीन नहुष शची की बात सुनकर हर्षित हो उठा, ‘सुन्दरी तुमने तो अपूर्व वाहन बताया है। मुझे तुम्हारी बात रुचिकर लगी है। अब तुम प्रसन्न हो जाओ। सभी ऋषि, देवता, गंधर्व, किन्नर मेरे आधीन हैं। मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूंगा। सम्पूर्ण सप्तर्षि मण्डल और ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोएँगे।’

नहुष की इस गर्वोक्ति से शची एक क्षण के लिए तो घबराई, लेकिन उसे देवगुरु बृहस्पति की नीति पर विश्वास था। उन्होंने कहा था, देवी शची, ब्रह्मर्षियों से सेवा लेना महापाप है। इस महापाप से नहुष स्वयं विनष्ट हो जाएगा। बृहस्पति के इन्हीं वचनों का स्मरण करके शची अपने भवन में चली गयीं।

इधर विवेकहीन, मद और काम से अन्धे नहुष ने यम-नियम का पालन करने वाले महान तेजस्वी, तपोमूर्ति, ज्ञानमूर्ति, सप्तर्षियों को अपनी पालकी ढोने का आदेश दिया। उसके इस आदेश पर सभी ऋषियों ने एक-दूसरे की ओर देखा, फिर इन्द्र पद की गरिमा का ख्याल करके पालकी उठा ली।

सुन्दर सजी हुई इस पालकी में नहुष आसीन था। निर्मल अन्तःकरण वाले ब्रह्मर्षि पापाचारी नहुष का बोझ ढोते-ढोते पीड़ित हो रहे थे। वह और उतावला हो रहा था और उनसे जल्दी-जल्दी चलने को कह रहा था। महर्षि अगस्त्य पर उसके उतावलेपन का कोई प्रभाव नहीं था। ब्रह्मचिन्तन में निमग्न वह अपनी गति से चल रहे थे। वही सबसे आगे थे। उनकी गति से सबकी गति प्रभावित होना स्वाभाविक था। इस पर उतावले नहुष ने सर्प-सर्प (जल्दी चलो, जल्दी चलो) कहते हुए उनके मस्तक पर अपने पैर से प्रहार किया। इस प्रकार प्रहार करते ही नहुष उसी क्षण तेजहीन-श्रीहीन हो भयाक्रान्त हो गया।

महासमुद्र को भी अपने तपोबल से सुखा देने वाले बह्मर्षि अगस्त्य उसके इस व्यवहार से कुपित हो गए। वह बोले, ब्रह्म के समान दुर्धर्ष तेजस्वी ऋषियों को वाहन बनाकर अपनी पालकी ढुलवाने वाले मूर्ख नहुष, तुम अब इन्द्र पद के योग्य नहीं रह गए। अतः हमारा शाप है कि तुम स्वर्ग से भ्रष्ट होकर पृथ्वी पर सर्प की योनि में जीवन बिताओ। अमित तेजस्वी महर्षि अगस्त्य के अमोघ शाप से भयभीत हो नहुष ने उनके चरणों में गिरकर अपने उद्धार का उपाय पूछा। अब वह मदान्ध और कामान्ध देवलोक का सम्राट नहीं, स्वर्ग से पतित एक सामान्य जीवात्मा था। ऐसा जीवात्मा जो अपने तप एवं पुण्य की सारी पूँजी गवाँ बैठा था।

ब्रह्मर्षि अगत्स्य को उस पर दया आ गयी। वह उस पर कृपा करते हुए बोले- वत्स नहुष तप का सुफल ज्ञान है। तुमने इस सत्य को न जानकर अपने तप के बदले भोग की कामना की, इसीलिए तुम भटके एवं पतित हुए। तपस्वी को ज्ञान की अभीप्सा करनी चाहिए। और ज्ञान हो जाने पर भी तप का मार्ग कभी छोड़ना नहीं चाहिए। अब जाओ अपना प्रायश्चित्त पूरा करो। मेरे आशीष से तुम्हारे जीवन में पुनः तप का मार्ग प्रशस्त होगा। पर अब सदा ही तप का उद्देश्य एवं आदर्श स्मरण रखना।

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