प्रातः स्मरण मंत्र

 प्रातः स्मरण - मंत्र
सम्पूर्ण प्रातः स्मरण, जो कि दैनिक उपासना से उदधृत है, आप सभी इसे अपने जीवन में उतारें एवं अपने अनुजो को भी इससे अवगत कराएं।
प्रात: कर-दर्शनम्-
कराग्रे वसते लक्ष्मी:, करमध्ये सरस्वती ।
कर मूले तु गोविन्द:, प्रभाते करदर्शनम ॥१॥

पृथ्वी क्षमा प्रार्थना-
समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमंड्ले ।
विष्णुपत्नि! नमस्तुभ्यं पाद्स्पर्श्म क्षमस्वे ॥२॥

त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण-
ब्रह्मा मुरारीस्त्रिपुरांतकारी
भानु: शाशी भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्र: शनि-राहु-केतवः
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम ॥३॥

सनत्कुमार: सनक: सन्दन:
सनात्नोप्याsसुरिपिंलग्लौ च ।
सप्त स्वरा: सप्त रसातलनि
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम ॥४॥

सप्तार्णवा: सप्त कुलाचलाश्च
सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम ॥५॥

पृथ्वी सगंधा सरसास्तापथाप:
स्पर्शी च वायु ज्वर्लनम च तेज: नभ: सशब्दम महता सहैव
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम ॥६॥

प्रातः स्मरणमेतद यो
विदित्वाssदरत: पठेत।
स सम्यग धर्मनिष्ठ: स्यात्
संस्मृताsअखंड भारत: ॥७॥

भावार्थ:
हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती तथा मूल में गोविन्द (परमात्मा ) का वास होता है। प्रातः काल में (पुरुषार्थ के प्रतीक) हाथों का दर्शन करें ॥१॥

पृथ्वी क्षमा प्रार्थना: भूमि पर चरण रखते समय जरूर स्मरण करें..
समुद्ररूपी वस्त्रोवाली, जिसने पर्वतों को धारण किया हुआ है और विष्णु भगवान की पत्नी हे पृथ्वी देवी ! तुम्हे नमस्कार करता हूँ ! तुम्हे मेरे पैरों का स्पर्श होता है इसलिए क्षमायाचना करता हूँ ॥२॥

है ब्रह्मा, विष्णु (राक्षस मुरा के दुश्मन, श्रीकृष्ण या विष्णु) , शिव (त्रिपुरासुर का अंत करने वाला, श्री शिव), सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु सभी देवता मेरे दिन को मंगलमय करें ॥३॥
प्रातःकालीन मंत्राः ●
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[ऋग्वेद : मण्डल ७, सूक्त ४१, मंत्र १-५]

प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना ।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम ॥ १ ॥

भावना - हे ईश्वर ! आप स्वप्रकाशस्वरूप – सर्वज्ञ हैं । परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य युक्त हैं । आप प्राण और उदान के समान हमें प्रिय हैं । आप सर्वशक्तिमान् हैं । आपने सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न किया है । हम आपकी स्तुति करते हैं । आप भजनीय हैं, सेवनीय हैं, पुष्टिकर्त्ता हैं । आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता हैं । आप हमारे अन्तर्यामी और प्रेरक हैं । हे जगदीश्वर ! आप पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोगनाशक हैं । हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं ।


प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता ।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥ २ ॥

भावना - हे ईश्वर ! आप जयशील हैं । आप ऐश्वर्य के दाता हैं । आप तेजस्वी – ज्ञानस्वरूप हैं । आपने अन्तरिक्ष के पुत्र-रूप सूर्य को उत्पन्न किया है । आप ही ने सूर्यादि लोकों को विशेष रूप से – सब ओर से धारण किया है । आप सभी को जानते हो । आप दुष्टों को दण्ड देते हो । आप सब के प्रकाशक हो । मैं आपके भजनीय स्वरूप का सेवन करता हूं – उपासना करता हूं । आप सबको उपदेश करते हैं कि – ‘मैं सूर्यादि जगत् को बनाने और धारण करते वाला हूं, आप लोग मेरी उपासना किया करो, मेरी आज्ञा में चला करो ।’ हे भगवान् ! इसलिए हम आपकी स्तुति करते हैं ।

भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः ।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम ॥ ३ ॥

भावना - हे ईश्वर ! आप भजनीय स्वरूप, सबके उत्पादक और सत्याचार में प्रेरक हैं । आप ऐश्वर्यप्रद हैं । आप सत्य धन को देनेवाले हैं । आप सत्याचरण करनेवालों को ऐश्वर्य देनेवाले हैं । हे परमेश्वर ! आप हमें प्रज्ञा का दीजिए । प्रज्ञा के दान से आप हमारी रक्षा कीजिए । आप हमारे लिए गाय, अश्व आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्य-श्री को उत्पन्न कीजिए । आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्य बनें, वीर बनें ।

उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्‌नाम्‌ ।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ॥ ४ ॥

भावना - हे ईश्वर ! आपकी कृपा से और अपने पुरुषार्थ से हम लोग इसी समय – प्रातःकाल में तथा दिनों के मध्य में प्रकर्षता अर्थात् उत्तमता प्राप्त करें, ऐश्वर्ययुक्त और शक्तिमान् होवें । हे परम पूजित ! आप असंख्य धन देनेवाले हो । आप हम पर कृपा कीजिए कि हम सूर्यलोक के उदय काल में पूर्ण विद्वान् धार्मिक आप्त लोगों की अच्छी उत्तम प्रज्ञा और सुमति में सदा प्रवृत्त रहें ।

भग एव भगवां अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम ।
त्वं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह ॥ ५ ॥

भावना - हे जगदीश्वर ! आप सकल ऐश्वर्य सम्पन्न हैं । इसलिए सब सज्जन आपकी निश्चय करके प्रशंसा – स्तुति करते हैं । आप ऐश्वर्यप्रद हैं । इस संसार में तथा हम जिस किसी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रम में स्थित हैं, उसमें आप अग्रगामी और आगे-आगे सत्य कर्मों में बढ़ानेवाले हूजिए । आप सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त और समस्त ऐश्वर्य के दाता हैं । अतः आप ही हमारे ‘भगवान्’ – पूजनीय देव हूजिए । उसी हेतु से हम विद्वान् लोग सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होके सब संसार के उपकार में तन-मन-धन से प्रवृत्त होवें । यही आपसे प्रार्थना है !

[नोट – यहां मन्त्र की 'भावना' स्वामी दयानन्द सरस्वती जी रचित ‘संस्कारविधिः’ के आधार पर संकलित कर प्रस्तुत की गई है । मन्त्र के शब्दों के अर्थ जानने के लिए ‘संस्कारविधिः’ का गृहाश्रम-प्रकरणम् द्रष्टव्य है । - 】 

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