सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र

(इस स्तोत्र को श्रद्धापूर्वक करने से सभी अरिष्टों का नाश होता है। अधिक लाभ के लिए इस स्तोत्र से नित्य हवन करें तथा 'स्वाहा' के उच्चारण के साथ गाय के घी की आहुति छोड़ें।)
हमारे पुराणों के ‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खंड में इस अनुभूत सर्वारिष्ट निवारण  स्तोत्र के  40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इसके अनुसार यह पाठ किसी भी  देवी-देवता की प्रतिमा या यंत्र के सामने बैठकर किया जा सकता है।
        इस पाठ के पूर्व  दीप-धूप आदि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना फलदायी माना गया है। इस पाठ के  अनुभूत और विशेष लाभ के लिए ‘स्वाहा’ और ‘नम:’ का उच्चारण करते हुए ‘घी (घृत)  मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियां देना चाहिए। इस पाठ को करने से मनुष्य के जीवन की सभी  बाधाओं का निवारण होता है।
सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र पाठ
ॐ गं गणपतये नम:।

सर्वविघ्न विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय,

सर्वसौख्यप्रदाय, बालानां बुद्धिप्रदाय, नानाप्रकार

धन वाहन भूमि प्रदाय, मनोवांछित फलप्रदाय

रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।

 

ॐ गुरवे नम:, ॐ श्रीकृष्णाय नम:, ॐ बलभद्राय नम:,

ॐ श्रीरामाय नम:, ॐ हनुमते नम:, ॐ शिवाय नम:,

ॐ जगन्नाथाय नम:, ॐ बदरीनारायणाय नम:,

ॐ श्री दुर्गादेव्यै नम:।।

 

ॐ सूर्याय नम:, ॐ चन्द्राय नम:, ॐ भौमाय नम:,

ॐ बुधाय नम:, ॐ गुरवे नम:, ॐ भृगवे नम:,

ॐ शनिश्चराय नम:, ॐ राहवे नम:,

ॐ पुच्छानयकाय नम:,

ॐ नवग्रह रक्षा कुरु कुरु नम:।।

 

ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्टा द्रष्टेषु येषु

हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि

येन नान्य कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि।

ॐ नमो मणिभद्रे। जयविजयपराजिते।

भद्रे लभ्यं कुरु कुरु स्वाहा।।

 

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि

धियो योन: प्रचोदयात्।

सर्व विघ्नं शान्तं कुरु कुरु स्वाहा।।

 

ॐ ऐं हृीं क्लीं श्रीबटुकभैरवाय आपदुद्धारणाय

महानश्यामस्वरूपाय दीर्घारिष्ट विनाशाय नाना-

प्रकार भोगप्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वारिष्टं

हन् हन्, पच पच, हर हर, कच कच, राज द्वारे

जयं कुरु कुरु, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं,

रणे शत्रून विनाशय विनाशय, पूर्णां आयु: कुरु कुरु

स्त्री-प्राप्तिं कुरु कुरु, हुम् फट् स्वाहा।।

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:।

ॐ नमो भगवते, विश्व मूर्तये, नाराणाय, श्री पुरुषोत्तमाय।

रक्ष रक्ष युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्ण

पच पच, विश्वमूर्तिकान् हन् हन्, ऐकाह्निकं

द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं जवरं नाशय नाशय,

चतुरग्निवातान् अष्टादशक्षयान् रोगान्,

अष्टादशकुष्ठान् हन् हन्, सर्वदोषं भंजय-भन्जय,

तत् सर्व नाशय-नाशय, शोषय-शोषय,

आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय,

उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तंभय-स्तंभय,

निवारय-निवारय, विघ्नं हन् हन्,

दह-दह, पच-पच, मथ-मथ, विध्वंसय-विध्वंसय,

विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रामागच्छागच्छ,

चक्रेण हन् हन्, परविद्यां छेदय-छेदय,

चौरासी चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय,

वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे

बाह्यं ताराभि: भव्यन्तरिक्षं अन्याय-व्यापि-केचिद्

देश-काल स्थान सर्वान् हन् हन्, विद्युन्मेघ नदी-पर्वत,

अष्टव्याधि सर्वस्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय,

सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं

निवारय-निवारय, दह-दह, रक्षां कुरु कुरु,

ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा।।

 

ठ: ठ: ॐ हृीं हृीं। ॐ हृीं क्लीं भुवनेश्वर्या: श्रीं ॐ भैरवाय नम:।

हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नम:।

डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महापिशाचिनी ॐ ऐं ठ: ठ:।

ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरु कुरु, सर्वव्याधिहरणीदेव्यै नमो नम:।

सर्वप्रकारबाधा शमनमरिष्टं निवारणं कुरु कुरु फट्।

श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै हृीं ठ: स्वाहा।।

 

शीघ्रमरिष्टं निवारणं कुरु कुरु देवी शाम्बरी क्रीं ठ: स्वाहा।

शारिकाभेदा महामाया पूर्णं आयु: कुरु।

हेमवती मूलं रक्षा कुरु।

चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विघ्नं सर्वं वायु कफ पित्त रक्षां कुरु।

 

मंत्र-तंत्र-कवच ग्रह पीड़ा नडतर,

पूर्व जन्मदोष नडतर, यस्य जन्मदोष नडतर,

मातृदोष नडतर, पितृदोष-पिशाच-जात-जादू-टोना शमनं कुरु।

सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका देव्यै गल-विस्फोटकायै विक्षिप्त

शमनं महान् ज्वर क्षयं कुरु स्वाहा।।

 

सर्व सामग्री भोगं सप्तदिवसं देहि-देहि रक्षां कुरु,

क्षण-क्षण अरिष्ट निवारणं, दिवस-प्रति-दिवस दु:ख

हरणं मंगलकरणं कार्यसिद्धिं कुरु।

हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नम:,

हरि ॐ भूर्भुव: स्व: चन्द्र

तारा-नवग्रह-शेष-नाग-पृथ्वी देव्यै

आकाशस्य सर्वारिष्ट निवारणं कुरु कुरु स्वाहा।

 

1. ॐ ऐं हृीं श्रीं बटुकभैरवाय आपदुद्धारणाय सर्वविघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।

 

2. ॐ ऐं हृीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नम:, बटुकभैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।

 

3. ॐ ऐं हृीं क्लीं श्रीविष्णु भगवान मम अपराधक्षमा कुरु कुरु, सर्वविघ्नं विनाशाय मम कामना पूर्णं कुरु कुरु स्वाहा।

 

4. ॐ ऐं हृीं क्लीं श्रीबटुकभैरवाय आपदुद्धारणाय सर्वविघ्नं निवारणाय मम रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।

 

5. ॐ ऐं हृीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गादेवी रूद्राणीसहिता, रूद्र देवता कालभैरव सह बटुक भैरवाय, हनुमान सह मकरध्वजाय आपदुद्धारणाय मम सर्वदोष क्षमाय कुरु कुरु सकल विनाशाय मम शुभमांगलिक कार्य सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।

 

एष विद्यामाहात्म्यं च पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं।

शतक्रतो तु हन्येतान् सर्वाश्च बलिदानवा:।।

 

य पुमान् पठते नित्यं एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना।

तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टिगतंविषं।।

 

अन्य दृष्टि-विषं चैव न देयं संक्रमे ध्रुवम्।

संग्रामे धारयेत्यम्बे उत्पाता च विसंशय:।।

 

सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशय:।

द्रुतं सद्यं जयस्तस्य विघ्नस्तस्य न जायते।।

 

किमत्र बहुनोक्तेन सर्वसौभाग्य सम्पदा।

लभतेनात्र सन्देहो नान्यथा वचनं भवेत्।।

 

ग्रहीतो यदि वा यत्नं बालानां विविधैरपि।

शीतं समुष्णतां याति, उष्ण: शीतमयो भवेत्।।

 

नान्यथा श्रुतये विद्या पठति कथितं मया।

भोजपत्रे लिखेदृ यंत्रं गोरोचनमयेन च।।

 

इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्वरक्षाकरोतु मे।

पुरुषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षण:।।

 

विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यश:।

सर्वशत्रुरधो यान्ति:, शीघ्रं ते च पलायनम्।।

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